(दूसरी इकाई) ११. समता की ओर

बीत गया हेमंत भ्रात, शिशिर ॠतु आई !
प्रकृति हुई द्युतिहीन, अवनि में कुंझटिका है छाई ।
पड़ता खूब तुषार पद्मदल तालों में बिलखाते,
अन्यायी नृप के दंडों से यथा लोग दुख पाते ।
निशा काल में लोग घरों में निज-निज जा सोते हैं,
बाहर श्वान, स्यार चिल्‍लाकर बार-बार रोते हैं ।
अद्‌र्धरात्रि को घर से कोई जो आँगन को आता,
शून्य गगन मंडल को लख यह मन में है भय पाता ।
तारे निपट मलीन चंद ने पांडुवर्णहै पाया,
मानो किसी राज्‍य पर है, राष्‍ट्रीय कष्‍ट कुछ आया ।
धनियों को है मौज रात-दिन हैं उनके पौ-बारे,
दीन दरिद्रों के मत्‍थेही पड़े शिशिर दुख सारे ।
वे खाते हैं हलुवा-पूड़ी, दूध-मलाई ताजी,
इन्हें नहीं मिलती पर सूखी रोटी और न भाजी ।
वे सुख से रंगीन कीमती ओढ़ें शाल-दुशाले,
पर इनके कंपित बदनों पर गिरते हैं नित पाले ।
वे हैं सुख साधन से पूरित सुघर घरों के वासी,
इनके टूटे-फूटे घर में छाई सदा उदासी ।
पहले हमें उदर की चिंता थी न कदापि सताती,
माता सम थी प्रकृति हमारी पालन करती जाती ।।
हमको भाई का करना उपकार नहीं क्‍या होगा,
भाई पर भाई का कुछ अधिकार नहीं क्‍या होगा ।