(दूसरी इकाई) ३. श्रम साधना

गुलामी की प्रथा संसार भर में हजारों वर्षों तक चलती रही । उस लंबे अरसे में विद्‌वान तत्‍त्‍ववेत्‍ता और साधु-संतों के रहते हुए भी वह चलती रही। गुलाम लोग खुद भी मानते थे कि वह प्रथा उनके हित में है फिर मनुष्‍य का विवेक जागृत हुआ । अपने जैसे ही हाड़-मांॅस और दुख की भावना रखने वालाें को एक दूसरा बलवान मनुष्‍य गुलामी में जकड़ रखे, क्‍या यह बात न्यायोचित है, यह प्रश्न सामने आया । इसको हल करने के लिए आपस में युद्ध भी हुए । अंत में गुलामी की प्रथा मिटकर रही । इसी प्रकार राजाओं की संस्‍था की बात है । जगत भर में हजारों वर्षों तक व्यक्‍तियों का, बादशाहों का राज्‍य चला पर अंत मंे ‘क्‍या किसी एक व्यक्‍ति को हजारों आदमियों को अपनी हुकूमत में रखने का अधिकार है,’ यह प्रश्न खड़ा हुआ । उसे हल करने के लिए अनेक घनघोर युद्ध हुए और सदियों तक कहीं-न-कहीं झगड़ा चलता रहा । असंख्य लोगों को यातनाएँ सहन करनी पड़ीं । अंत मंे राजप्रथा मिटकर रही और राजसत्‍ता प्रजा के हाथ में आई । हजारों वर्षों तक चलती हुई मान्यताएँ छोड़ देनी पड़ीं । ऐसी ही कुछ बातें संपत्‍ति के स्‍वामित्‍व के बारे में भी हैं ।

 संपत्‍ति के स्‍वामित्‍व और उसके अधिकार की बात जानने के लिए यह समझना जरूरी है कि संपत्‍ति किसे कहते हैं और वह बनती कैसे है ?

आम तौर से माना जाता है कि रुपया, नोट या सोना-चाँदी का सिक्‍का ही संपत्‍ति है, लेकिन यह ख्याल गलत है क्‍योंकि ये तो संपत्‍ति के माप-तौल के साधन मात्र हैं । संपत्‍ति तो वे ही चीजें हो सकती हैं जो किसी-न-किसी रूप में मनुष्‍य के उपयोग में आती हैं । उनमें से कुछ ऐसी हैं जिनके बिना मनुष्‍य जिंदा नहीं रह सकता एवं कुछ, सुख-सुविधा और आराम के लिए होती हैं । अन्न, वस्‍त्र और मकान मनुष्‍य की प्राथमिक आवश्यकताएँ हैं, जिनके बिना उसकी गुजर-बसर नहीं हो सकती । इनके अलावा दूसरी अनेक चीजें हैं जिनके बिना मनुष्‍य रह सकता है ।

प्रश्न उठता है कि संपत्‍तिरूपी ये सब चीजें बनती कैसे हैं ? सृष्‍टि में जो नानाविध द्रव्य तथा प्राकृतिक साधन हैं, उनको लेकर मनुष्‍य शरीर श्रम करता है, तब यह काम की चीजें बनती हैं । अतः संपत्‍ति के मुख्य साधन दो हैं ः सृष्‍टि के द्रव्य और मनुष्‍य का शरीर श्रम । यंत्र से कुछ चीजें बनती दिखती हैं पर वे यंत्र भी शरीर श्रम से बनते हैं और उनको चलाने में भी प्रत्‍यक्ष या अप्रत्‍यक्ष शरीर श्रम की आवश्यकता होती है । केवल बौद्‌धिक श्रम से कोई उपयोग की चीज नहीं बन सकती अर्थात बिना शरीर श्रम के संपत्‍ति का निर्माण नहीं हो सकता ।

संपत्‍ति के स्‍वामित्‍व में शरीर श्रम करने वालों का स्‍थान क्‍याहै ? जो प्रत्‍यक्ष शरीर श्रम के काम करते हैं उन्हें तो गरीबी या कष्‍ट में ही अपना जीवन बिताना पड़ता है और उन्हीं के द्‌वारा उत्‍पादित संपत्‍ति दूसरे थोड़े से हाथों में ही इकट्ठी होती रहती है । श्रमजीवियों की बनाई हुई चीजें व्यापारियों या दूसरों के हाथों में जाकर उनके लेन-देन से कुछ लोग मालदार बन जाते हैं । वर्षभर मेहनत कर किसान अन्न पैदा करता है लेकिन बहुत दफा तो उसकी खुद की आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं होतीं पर वही अनाज व्यापारियों के पास जाकर उनको धनवान बनाता है। संपत्‍ति बनाते हैं मजदूर और धन इकटठा ् होता है उनके पास जो केवल व्यवस्‍था करते हैं, मजदूरी नहीं करते ।

जीवन निर्वाह या धन कमाने के लिए अनेक व्यवसाय चल रहे हैं । इनके मोटे तौर पर दो वर्गकिए जा सकते हैं । कुछ व्यवसाय एेसे हैं, जिनमें शरीर श्रम आवश्यक है और कुछ ऐसे हैं जो बुद्‌धि के बल पर चलाए जाते हैं । पहले प्रकार के व्यवसाय को हम श्रमजीवियों के व्यवसाय कहें और दूसरों को बुद्‌धिजीवियों के । राज-काज चलाने वाले मंत्री अादि तथा राज के कर्मचारी ऊँचे-ऊँचे पद से लेकर नीचे के क्‍लर्क तक, न्यायाधीश, वकील, डाॅक्‍टर, अध्यापक, व्यापारी आदि ऐसे हैं जो अपना भरण-पोषण बौद्‌धिक काम से करते हैं । शरीर श्रम से अपना निर्वाह करने वाले हैं- किसान, मजदूर, बढ़ई, राज, लुहार आदि । समाज के व्यवहार के लिए इन बुद्‌धिजीवियों और श्रमजीवियों, दोनों प्रकार के लोगों की जरूरत है पर सामाजिक दृष्‍टि से इन दोनों के व्यवसाय के मूल्‍यों में बहुत फर्कहै ।

बुद्‌धिजीवियांे का जीवन श्रमजीवियों पर आधारित है । ऐसा होते हुए भी दुर्भाग्‍य यह है कि श्रमजीवियों की मजदूरी एवं आमदनी कम है, समाज में उनकी प्रतिष्‍ठा नहीं और उनको अपना जीवन प्रायः कष्‍ट में ही बिताना पड़ता है ।

व्यापारी और उद्योगपतियों के लिए अर्थशास्‍त्र ने यह नियम बताया है कि खरीद सस्‍ती-से-सस्‍ती हो और बिक्री महँगी-से-महँगी । मुनाफे की कोई मर्यादा नहीं । जो कारखाना मजदूरों के शरीर श्रम के बिना चल ही नहीं सकता, उसके मजदूर को हजार-पाँच सौ मासिक से अधिक भले ही न मिले, पर व्यवस्‍थापकों और पूँजी लगाने वालों को हजारों-लाखों का मिलना गलत नहीं माना जाता ।

मनुष्‍य समाज में रहने से अर्थात समाज की कृपा से ही व्यवहार चलाने लायक बनता है । बालक प्राथमिक शाला से लेकर देश-विदेश के ऊँचे-से-ऊँचे महाविद्यालयों में सीखकर जो योग्‍यता प्राप्त करता है, वे शिक्षालय या तो सरकार द्‌वारा चलाए जाते हैं, जिनका खर्च आम जनता से टैक्‍स के रूप में वसूल किए हुए पैसे से चलता है या दानी लोगों की कृपा से । जो कुछ पढ़ने की फीस दी जाती है, वह तो खर्च के हिसाब से नगण्य है । उसको समाज का अधिक कृतज्ञ रहना चाहिए कि उस पैसे के बल पर वह विद्या पढ़कर योग्‍यता प्राप्त कर सका । इस सारी शिक्षा में जो कुछ ज्ञान मिलता है, वह भी हजारों वर्षों तक अनेक तपस्‍वियों ने मेहनत करके जो कण-कण संग्रहीत कर रखा है, उसी के बल पर मिलता है । व्यापारी और उद्योगपति भी व्यापार की कला विद्यालयों से, अपने साथियों से एवं समाज से प्राप्त करते हैं ।

जब अपनी योग्‍यता प्राप्त करने में हमारा खुद का हिस्‍सा अल्‍पतम है और समाज की कृपा का अंश अत्‍यधिक तो हमें जो योग्‍यता प्राप्त हुई है उसका उपयोग समाज को अधिक-से-अधिक देना और उसके बदले में समाज से कम-से-कम लेना, यही न्याय तथा हमारा कर्तव्य माना जा सकता है । चल रहा है कुछ उल्‍टा ही । व्यक्‍ति समाज को कम-से-कम देने की इच्छा रखता है, समाज से अधिक-से-अधिक लेने का प्रयत्‍न करता है, कुछ भी न देना पड़े तो उसे रंज नहीं होता ।

यह गंभीर बुनियादी सवाल है कि क्‍या बुद्‌धि का उपयोग विषम व्यवस्‍था को कायम रखकर पैसे कमाने के लिए करना उचित है ? यह तो साफ दीखता है कि अार्थिक विषमता का एक मुख्य कारण बुद्‌धि का ऐसा उपयोग ही है । शोषण भी प्रायः उसी से होता है । समाज में जो अार्थिक और सामाजिक विषमताएँ चल रही हैं और जिससे शोषण, अशांति होती है, उसे मिटाने के लिए जगत में अनेक योजनाएँ अब तक सामने आईं और इनमें कुछ पर अमल भी हो रहा है । अहिंसा द्‌वारा यह जटिल प्रश्न हल करना हो तो गांधीजी ने इस आशय का सूत्र बताया, ‘‘पेट भरने के लिए हाथ-पैर और ज्ञान प्राप्त करने और ज्ञान देने के लिए बुद्‌धि । ऐसी व्यवस्‍था हो कि हर एक को चार घंटे शरीर श्रम करना पड़े और चार घंटे बौद्‌धिक काम करने का मौका मिले और चार घंटों के शरीर श्रम से इतना मिल जाए कि उसका निर्वाह चल सके ।’’

अभी समाज में यह चल रहा है कि बहुत से लोग अपनी आजीविका शरीर श्रम से चलाते हैं और थोड़े बौद्‌धिक श्रम से । जिनके पास संपत्‍ति अधिक है, वे आराम में रहते हैं । अनेक लोगों में श्रम करने की आदत भी नहीं है । इस दशा में उक्‍त नियम का अमल होना दूर की बात है फिर भी आर्थिक विषमता को दूर करने वाले उपायों के बारे में सुनकर कक्षा में सुनाइए । श्रवणीय 61 उसके पीछे जो तथ्‍य है, वह हमें स्‍वीकार करना चाहिए भले ही हमारी दुर्बलता के कारण हम उसे ठीक तरह से न निभा सकें क्‍योंकि आजीविका की साधन-सामग्री किसी-न-किसी के श्रम बिना हो ही नहीं सकती । इसलिए बिना शरीर श्रम किए उस सामग्री का उपयोग करने का न्यायोचित अधिकार हमें नहीं मिलता । अगर पैसे के बल पर हम सामग्री खरीदते हैं तो उस पैसे की जड़ भी अंत में श्रम ही है ।

धनिक लोग अपनी ज्‍यादा संपत्‍ति का उपयोग समाज के हित में ट्रस्‍टी के तौर पर करें । संपत्‍ति दान यज्ञ और भूदान यज्ञ का भी आखिर आशय क्‍याहै ? अपने पास आवश्यकता से जो कुछ अधिक है, उसपर हम अपना अधिकार न समझकर उसका उपयोग दूसरों के लिए करें ।

यह भी बहस चलती है कि धनिकों के दान से सामाजिक उपयोग के अनेक बड़े-बड़े कार्यहोते हैं जैसे कि अस्‍पताल, विद्यालय आदि । अगर व्यक्‍तियों के पास संपत्‍ति इकटठी न ् हो तो समाज को ये लाभ कैसे मिलंेगे?

वास्‍तव में जब संपत्‍ति थोड़े-से हाथों में बँधी न रहकर समाज में फैली रहेगी तो सहकार पद्धति से बड़े पैमाने पर ऐसे काम आसानी से चलने लगेंगे और उनका लाभ लेने वाले, याचक या दीन की तरह नहीं, सम्‍मानपूर्वक लाभ उठाएँगे ।

अर्थशास्‍त्री कहते हैं कि उत्‍पादन की प्रेणा के लिए व्यक्‍ति को स्‍वार्थ के लिए अवसर देने होंगे वरना देश में उत्‍पादन और संपत्‍ति नहीं बढ़ सकेगी, बचत भी नहीं होगी । अनुभव बताता है कि पूँजी, गरीबी या बेकारी की समस्‍या हल नहीं कर सकी है । नैतिक दृष्‍टि से भी स्‍वार्थवृत्‍ति का पोषण करना योग्‍य नहीं है । बहुत करके स्‍वार्थ का अर्थहोता है परार्थ की हानि । उसी में से स्‍पर्धा बढ़ती है, जिसके फलस्‍वरूप कुछ थोड़े से लोग ही लाभ उठा सकते हैं, बहुसंख्यकों को तो हानिही पहुँचती है । मानवोचित सहयोग की जगह जंगल का कानून या मत्‍स्‍य न्याय चलता है। आखिर यह देखना है कि समाज का कल्‍याण किस वृत्‍ति से होगा ? अगर समाज में स्‍वार्थ वृत्‍ति के लोग अधिक हों, तो क्‍या कल्‍याण की आशा रखी जा सकती है ? समाज तो परोपकार वृत्‍ति के बल पर ही ऊँचा उठ सकता है । संपत्‍ति बढ़ाने के लिए स्‍वार्थ का आधार दोषपूर्णहै ।

इस संबंध में कुछ भाई अमेरिका का उदाहरण पेश करते हैं । कहते हैं कि जिनके पास संपत्‍ति इकटठी हुई ् है, उनपर कर लगाकर कल्‍याणकारी राज्‍य की स्‍थापना की जाए । उसी आधार पर भारत को कल्‍याणकारी (वेल्‍फेयर) राज्‍य बनाने की बात चली है । कल्‍याणकारी राज्‍य का अर्थ यह समझा जाता है कि सब तरह के दुर्बलों को राज्‍यसत्‍ता द्‌वारा मदद मिल अर्थात बड़े पैमाने पर कर वसूल करके उससे गरीबों को सहारा दिया जाए। भारत जैसे देश में क्‍या इस बात का बन पाना संभव है ? प्राथमिक आवश्यकताआंे के बारे में मनुष्‍य अपने पैरों पर खड़े रहने लायक हुए बिना स्‍वतंत्र नहीं रह सकता, किसी-न-किसी प्रकार उसे पराधीन रहना होगा।

हमारी सामाजिक विचारधारा में एक बड़ा भारी दोष है । हम शरीर श्रम करना नहीं चाहते वरन उसे हीन दृष्‍टि से देखते हैं और जिनको शरीर श्रम करना पड़ता है, उन्हें समाज में हीन दर्जे का मानते हैं । अमीर या गरीब, कोई भी श्रम करना नहीं चाहता । धनिक अपने पैसे के बल से नौकरों द्‌वारा अपना काम चला लेता है । गरीब भूख की लाचारी से श्रम करता है । हमें यह वृत्‍ति बदलनी चाहिए । शरीर श्रम की केवल प्रतिष्‍ठा स्‍थापित कर संतोष नहीं मानना है । उसके लिए हमारे दिल में प्रीति होनी चाहिए । आज श्रमिक भी कर्तव्यपरायण नहीं रहा है । श्रम की प्रतिष्‍ठा बढ़ाना उसी के हाथ है । जिस श्रम में समाज को जिंदा रखने की क्षमता है, उस श्रम का सही मूल्‍य अगर श्रमिक जान लेगा तो देश में आर्थिक क्रांति होने में देर नहीं लगेगी ।

गांधीजी ने श्रम और श्रमिक की प्रतिष्‍ठा स्‍थापित करने के लिए ही रचनात्‍मक कार्यांे को लोक चेतना का माध्यम बनाया । उनकी मान्यता के अनुसार हरेक को नित्‍य उत्‍पादक श्रम करना ही चाहिए । यह उन्होंेने श्रम और श्रमिक की प्रतिष्‍ठा कायम करने के लिए किया ।

अब कुछ समय से जगत के सामने दया की जगह समता का विचार आया है । यह विषमता कैसे दूर हो ? कहीं-कहीं लोगों ने हिंसा का मार्ग ग्रहण किया उसमें अनेक बुराइयाँ निकलीं जो अब तक दूर नहीं हो सकी हैं। विषमता दूर करने में कानून भी कुछ मदद देता है परंतु कानून से मानवोचित गुणों का, सद्‌भावना का विकास नहीं हो सकता । महात्‍मा जी ने हमें जो अहिंसा की विचारधारा दी है, उसके प्रभाव का कुछ अनुभव भी हम कर चुके हैं । भारत की परंपरा का खयाल करते हुए यह संभव दीखता है कि विषमता का प्रश्न बहुत कुछ हद तक अहिंसा के इस मार्ग से हल हो सकना संभव है । इसमें धनिकों से पूरा सहयोग मिलना चाहिए। जैसे राजनीतिक स्‍वराज्‍य का प्रश्न काफी हद तक अहिंसा के मार्ग से सुलझा वैसे ही आर्थिक और सामाजिक समता का प्रश्न भी भारत मंे अहिंसा के मार्ग से सुलझेगा, ऐसी हम श्रद्धा रखें ।

(‘राजनीति का विकल्‍प’ से)