प्रिय सरोज,
जिस आश्रम की कल्पना की है उसके बारे में कुछ ज्यादा लिखूँ तो बहन को सोचने में मदद होगी, आश्रम यानी होम (घर) उसकी व्यवस्था में या संचालन में किसी पुरुष का संबंध न हो । उस आश्रम का विज्ञापन अखबार में नहीं दिया जाए । उसके लिए पैसे तो सहज मिलेंगे, लेकिन कहीं माँगने नहीं जाना है । जो महिला आएगी वह अपने खाने-पीने की तथा कपड़ेलत्ते की व्यवस्था करके ही आए । वह यदि गरीब है तो उसकी सिफारिश करने वाले लोगों को खर्च की पक्की व्यवस्था करनी चाहिए । पूरी पहचान और परिचय के बिना किसी को दाखिल नहीं करना चाहिए । दाखिल हुई कोई भी महिला जब चाहे तब आश्रम छोड़ सकती है ।
आश्रम को ठीक न लगे तो एक या तीन महीने का नोटिस देकर किसी को आश्रम से हटा सकता है लेकिन ऐसा कदम सोचकर लेना होगा । आश्रम किसी एक धर्म से चिपका नहीं होगा । सभी धर्म आश्रम को मान्य होंगे, अतः सामान्य सदाचार, भक्ति तथा सेवा का ही वातावरण रहेगा । आश्रम में स्वावलंबन हो सके उतना ही रखना चाहिए । सादगी का आग्रह होना चाहिए । आरंभ में पढ़ाई या उद्योग की व्यवस्था भले न हो सके लेकिन आगे चलकर उपयोगी उद्योग सिखाए जाएँ । पढ़ाई भी आसान हो । आश्रम शिक्षासंस्था नहीं होगी लेकिन कलह और कुढ़न से मुक्त स्वतंत्र वातावरण जहाँ हो ऐसा मानवतापूर्ण आश्रयस्थान होगा, जहाँ परेशान महिलाएँ बेखटके अपने खर्च से रह सकें और अपने जीवन का सदुपयोग पवित्र सेवा में कर सकें । ऐसा आसान आदर्श रखा हो और व्यवस्था पर समिति का झंझट न हो तो बहन सुंदर तरीके से चला सके ऐसा एक बड़ा काम होगा । उनके ऊपर ऐसा बोझ नहीं आएगा जिससे कि उन्हें परेशानी हो ।
संस्था चलाने का भार तो आने वाली बहनें ही उठा सकेंगी क्योंकि उनमें कई तो कुशल होंगी । बहन उनको संगीत की, भक्ति की तथा प्रेमयुक्त सलाह की खुराक दें । आगे चलकर संस्था की जमीन पर छोटे-छोटे मकान बनाए जाएँगे और उसमें संस्था के नियम के अधीन रहकर आने वाली महिलाएँ दो-दो, चार-चार का परिवार चलाएँगी, ऐसी संस्थाएँ मैंने देखी हैं । इसलिए जो बिलकुल संभव है, बहुत ही उपयोगी है । ऐसा ही काम मैंने सूचित किया है, इतने वर्ष के बहन के परिचय के बाद उनकी शक्ति, कुशलता और उनकी मर्यादा का ख्याल मुझे है । प्रत्यक्ष कोई हिस्सा लिए बिना मेरी सलाह और सहारा तो रहेगा ही । आगे जाकर बहन को लगेगा कि उनको तो मात्र निमित्तमात्र होना था । संस्था अपने आप चलेगी । समाज में ऐसी संस्था की अत्यंत आवश्यकता है । उस आवश्यकता में से ही उसका जन्म होगा । मुझे इतना विश्वास न होता तो बहन के लिए ऐसा कुछ मैं सूचित ही नहीं करता । तुम दोनों इस सूचना का प्रार्थनापूर्वक विचार करना लेकिन जल्दी में कुछ तय न करके यथासमय मुझे उत्तर देना । बहन यदि हाँ कहे तो अभी से आगे का विचार करने लगूँगा ।
यहाँ सरदी अच्छी है । फूलों में गुलदाउदी, क्रिजेन्थीमम फूल बहार में हैं । उसकी कलियाँ महीनों तक खुलती ही नहीं मानो भारी रहस्य की बात पेट में भर दी हो और होठों को सीकर बैठ गई हों । जब खिलती हैं तब भी एक-एक पंखुड़ी करके खिलती हैं । वे टिकते हैं बहुत । गुलाब भी खिलने लगे हैं । कोस्मोस के दिन गए । उन्होंने बहुत आनंद दिया । जिनिया का एक पौधा, रास्ते के किनारे पर था जो आए सो उसकी कली तोड़े । फिर मैंने इस बड़े पौधे को वहाँ से निकालकर अपने सिरहाने के पास लगा दिया, फिर इसने इतने संुदर फूल दिए । इसकी आँखें मानो उत्कटता से बोलती हों, ऐसी लगतीं । दो-एक महीने फूल देकर अंत में वह सूख गया। परसों ही मैंने उसे बिदा दी ।
– काका का दोनों को सप्रेम शुभाशीष गुरु, २१.१२.44
प्रिय सरोज,
तुम्हारा १६ से १8 तक लिखा हुआ पत्र आज अभी मिला । इस महीने में मैंने इन तारीखों को पत्र लिखे हैं-तारीख १,९,१5 और चौथा आज लिख रहा हूँ । अब तुमको हर सप्ताह मैं लिखूँगा ही । तुम्हारी तबीयत कमजोर है तब तक चिरंजीव रैहाना मुझे पत्र लिखेगी तो चलेगा । मुझे हर सप्ताह एक पत्र मिलना ही चाहिए ।
पूज्य बापू जी चाहते हैं तो हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए मुझे अपनी सारी शक्ति उर्दू सीखने के पीछे खर्च करनी चाहिए । तुमको मैंने एक संदेश भेजा था कि तुम उर्दूलिखना सीखो । लेकिन अब तो मेरा एक ही संदेश है-पूरा आराम लेकर पूरी तरह ठीक हो जाओ ।
तारों के नक्शे बनाने के लिए कंपास बाॅक्स भी मँगाकर रखा है । लेकिन अब तक कुछ हो नहीं पाया है ।
मैंने अपने फूल के गमले अपने पास से निकाल दिए हैं । सादे क्रोटन को ही रहने दिया है ।
सबको काका का सप्रेम शुभाशीष
(‘काका कालेलकर ग्रंथावली’ से)