[अमृतलाल नागर जी से विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी की बातचीत ]
तिवारी जी : नागर जी, मैंआपको आपकेलेखन केआरंभ काल की ओर लेचलना चाहता हूँ। जिस समय आपने लिखना शुरू किया उस समय का साहित्यिक माहौल क्या था ? किन लोगों सेप्रेरित होकर आपने लिखना शुरू किया और क्या आदर्शथेआपकेसामने?
नागर जी : लिखनेसेपहलेतो मैंनेपढ़ना शुरू किया था । आरंभ में कवियोंकोहीअधिकपढ़ता था। सनेही जी,अयोध्यासिंह उपाध्याय की कविताएँ ज्यादा पढ़ीं । छापेका अक्षर मेरा पहला मित्र था। घर मेंदोपत्रिकाएँ मँगातेथेमेरे पितामह। एक ‘सरस्वती’ और दूसरी ‘गृहलक्ष्मी’ । उस समय हमारे सामनेप्रेमचंद का साहित्य था, कौशिक का था। आरंभ मेंबंकिम केउपन्यास पढ़े। शरतचंद्र को बाद में। प्रभातकुमार मुखोपाध्याय का कहानी संग्रह ‘देशी और विलायती’ १९३० केआसपास पढ़ा । उपन्यासों में बंकिम केउपन्यास १९३० मेंहीपढ़ डाले। ‘आनंदमठ’, ‘देवी चौधरानी’ औरएक राजस्थानी थीम पर लिखाहुआ उपन्यास, उसी समय पढ़ा था ।
तिवारी जी : क्या यही लेखक आपकेलेखन केआदर्शरहे?
नागर जी : नहीं, कोई आदर्शनहीं । केवल आनंद था पढ़नेका । सबसेपहलेकविता फूटी साइमन कमीशन केबहिष्कार केसमय १९२8-१९२९ में। लाठीचार्ज हुआ था । इस अनुभव सेही पहली कविता फूटी-‘कब लौं कहौं लाठी खाय!’ इसेही लेखन का आरंभ मानिए।
तिवारी जी : इस घटना केबाद आपराजनीति की ओर क्योंनहीं गए ?
नागर जी : नहीं गया क्योंकि पिता जी सरकारी कर्मचारी थे। १९२९ केबाद मेरी रुचि बढ़ी-पढ़नेमेंभी और सामाजिक कार्यों मंे भी । लेकिन मेरी पहली कहानी छपी १९३३ में ‘अपशकुन’। तुम्हारेगोरखपुर केमन्ननद्विवेदी लिख रहे थेउन दिनों । चंडीप्रसाद हृदयेश थेजिनकी लेखन शैली नेमुझेबहुत प्रभावित किया ।
तिवारी जी : क्या उन दिनों आपपर गांधीजी के व्यक्तित्व का भी कुछ प्रभाव पड़ा ?
नागर जी : हाँ, निश्चित रूप से पड़ा । पिता जी ने आंदोलनों में भाग लेने से रोका । वह रोकना ही मेरे लेखन के लिए अच्छा हुआ। तिवारी जी ः आपके लेखन में गरीबों के प्रति जो करुणा है वह किससे प्रभावित है ?
नागर जी : वह तो अपने समाज से ही उभरी थी । मेरी पहली कहानी ‘प्रायश्चित’ इसका प्रमाण है । हमारे पारिवारिक संस्कार भी थे । मेरे पिता जी में एक अद्भुत गुण था । वे किसी के दुख-दर्द में तुरंत पहुँचते थे । इसने मुझे बहुत प्रभावित किया ।
तिवारी जी : उस समय तो क्रांतिकारी आंदोलन भी हो रहे थे । क्या उनका भी आपपर कुछ प्रभाव पड़ा ?
नागर जी : उसी से तो पिता जी ने डाँटा और रोका । काकोरी बमकांड हो चुका था । १९२१ से आंदाेलन तेज हो गए थे ।
तिवारी जी : क्या सामाजिक आंदोलनों, जैसे आर्य समाज का भी आपपर कुछ प्रभाव पड़ा ?
नागर जी : आरंभिक असर है थोड़ा जरूर । मेरे पिता जी में एक अच्छी बात थी कि उन्होंने मुझे सामाजिक आंदोलनों में जाने से कभी नहीं रोका । जवाहरलाल नेहरू से मेरी भेंट १९३३ में हुई । उनकी माँ मेडिकल कॉलेज मंे दाखिल थीं और उसी समय मेरा छोटा भाई भी वहाँ दाखिल था। नेहरू जी जेल में थे । उनकी माँ के पास कुछ कश्मीरी लोगों को छोड़कर कोई आता-जाता नहीं था । मैं उनकी माता जी के पास रोज जाता था । पंडित जी जब जेल से छूटे तो मेरी उनसे वहीं भेंट हुई जो प्रायः होती रहती थी। उनसे खूब बातें होती थीं- हर तरह की ।
तिवारी जी : आपका पहला उपन्यास कौन-सा है ?
नागर जी : पहला उपन्यास लिखा १९44 में ‘महाकाल’, जो छपा १९4६ में । बंगाल से लौटकर इसे लिखा था।
तिवारी जी : क्या यही बाद में ‘भूख’ नाम से प्रकाशित हुआ ।
नागर जी : हाँ ।
तिवारी जी : नागर जी, आप अपने समय के और कौन-कौन से लेखकों के संपर्क-प्रभाव में रहे ?
नागर जी : जगन्नाथदास रत्नाकर, गोपाल राय गहमरी, प्रेमचंद, किशोरी लाल गोस्वामी, लक्ष्मीधर वाजपेयी आदि के नाम याद आते हैं । माधव शुक्ल हमारे यहाँ आते थे । वे आजानुबाहु थे, ढीला कुरता पहनते थे और कुरते की जेब में जलियाँवाला बाग की खून सनी मिट्टी हमेशा रखे रहते थे । १९३१ से ३७ तक मैं प्रतिवर्ष कोलकाता जाकर शरतचंद्र से मिलता रहा, उनके गाँव भी गया ।
तिवारी जी : पुराने साहित्यकारों में आप किसको अपना आदर्श मानते हैं?
नागर जी : तुलसीदास को तो मुझे घुट्टी में पिलाया गया है । बाबा, शाम को नित्य प्रति ‘रामचरितमानस’ मुझसे पढ़वाकर सुनते थे । श्लोक जबरदस्ती याद करवाते थे।
तिवारी जी : नागर जी, आपने ‘खंजन नयन’ में सूरदास के चमत्कारों का बहुत विस्तार से वर्णन किया है । क्या इनपर आपका विश्वास है ?
नागर जी : नेत्रहीनों के चमत्कार हमने बहुत देखे हैं । उनकी भविष्यवाणियाँ कभी-कभी बहुत सच होती हैं। सूरपंचशती के अवसर पर काफी विवाद चला था कि सूर जन्मांध थे या नहीं । सवाल यह है कि देखता कौन है ? आँख या मन ? आँख माध्यम है, देखने वाला मन है।
तिवारी जी : आपने क्या कभी अपने लिखने की सार्थकता की परख की है ?
नागर जी : हाँ, मेरे पास बहुत से पत्र आते हैं । मेरे उपन्यासों के बारे में, खास तौर से जिनसे पाठकीय प्रतिक्रियाओं का पता चलता है ।
तिवारी जी : नागर जी, आपने भ्रमण तो काफी किया है…
नागर जी : हाँ, पूरे अखंड भारतवर्ष का । पेशावर से कन्याकुमारी तक । बंगाल से कश्मीर तक । इन यात्राओं का यह लाभ हुआ कि मैंने कैरेक्टर (चरित्र) बहुत देखे और उनके मनोविज्ञान को भी समझने का मौका मिला ।
तिवारी जी : अपने समय के लेखकों में आप किन्हें पसंद करते हैं ?
नागर जी : अगर दिल से पूछो तो एक ही आदमी । उसे बहुत प्यार करता हूँ । वह है रामविलास शर्मा । प्रभातकुमार मुखोपाध्याय का संग्रह ‘देशी और विलायती’ अगर मिल जाए तो फिर पढ़ना चाहूँगा । बदलते हुए भारतीय समाज के सुंदर चित्र हैं उसकी कहानियों में । टॉल्स्टॉय और चेखव की रचनाएँ भी मुझे प्रिय हैं ।
तिवारी जी : आपने तो पत्रों का भी बहुत संकलन किया है ?
नागर जी : हाँ, बहुत । पत्रों का संग्रह भी काफी है, लेकिन वह व्यवस्थित नहीं है । मैंने प्रत्येक जा प्रत्ये ति के रीति-रिवाज भी इकटठ्े किए हैं । इसके लिए घूमना बहुत पड़ा है । बड़े-बूढ़ों से सुनकर भी बहुत कुछ प्राप्त किया है । ‘गदर के फूल’ के लिए मुझे बहुत लोगों से मिलना-जुलना पड़ा।
तिवारी जी : आपने अपने उपन्यासों के लिए फील्डवर्क बहुत किया है।
नागर जी : हाँ, बहुत करना पड़ा है । ‘नाच्यो बहुत गोपाल’ के लिए सफाई कर्मियों की बस्तियों में जाना पड़ा। उनके रीति-रिवाजों का अध्ययन करना पड़ा ।
तिवारी जी : नागर जी, क्या आप मन और प्राण को अलग-अलग मानते हैं ?
नागर जी : हाँ, प्राण को मन से अलग करना पड़ेगा । मन की गति आगे तक है । प्राण को वहाँ तक खींचना पड़ता है । मन एक ऐसा निर्मल जल है जिससे जीवन के संस्कार रँगते हैं । मन, प्राण से ही सधता है।
तिवारी जी : सूर में आपने मन को ही पकड़ा है ।
नागर जी : हाँ, सूर ने एक जगह लिखा है-‘मैं दसों दिशाओं में देख लेता हूँ ।’ जब पूरी प्राणशक्ति एक जगह केंद्रित होगी तो ‘इंट्यूटिव आई’ बनाएगी ।
तिवारी जी : नागर जी, हम लोगों ने आपका बहुत समय लिया, बल्कि आपकी उम्र और स्वास्थ्य का भी लिहाज नहीं किया ।
नागर जी : स्वास्थ्य ठीक है मेरा। पत्नी की मृत्यु के बाद एक टूटन आ गई थी, लेकिन फिर मैंने सोचा कि लिखने के सिवा और चारा क्या है । तुम लोग यह मनाओ कि जब तक जिंदा रहूँ, लिखता रहूँ ।
(‘एक नाव के यात्री’ से)