(दूसरी इकाई) 4. छापा

मेरे घर छापा पड़ा, छोटा नहीं बहुत बड़ा वे आए, घर में घुसे, और बोले-सोना कहाँ है ? मैंने कहा-मेरी आँखों में है, कई रात से नहीं सोया हूँ
वे रोष मंे आकर बोले-स्‍वर्ण दो स्वर्ण ! मैंने जोश में आकर कहा-सुवर्ण मैंने अपने काव्य में बिखेरे हैं उन्हें कैसे दे दूँ । वे झुँझलाकर बोले, तुम समझे नहीं हमें तुम्‍हारा अनधिकृत रूप से अर्जित अर्थ चाहिए मैं मुसकाकर बोला, अर्थ मेरी नई कविताओं में है तुम्‍हें मिल जाए तो ढूँढ़ लो वे कड़ककर बोले, चाँदी कहाँ है ?
मैं भड़ककर बोला-मेरे बालों में आ रही है धीरे-धीरे वे उद्‌भ्रांत होकर बोले, यह बताओ तुम्‍हारे नोट कहाँ हैं ? परीक्षा से एक महीने पहले करूँगा तैयार
वे गरजकर बोले, हमारा मतलब आपकी मुद्रा से है मैं लरजकर बोला, मुद्राएँ आप मेरे मुख पर देख लीजिए, वे खड़े होकर कुछ सोचने लगे फिर शयन कक्ष में घुस गए और फटे हुए तकिये की रूई नोचने लगे उन्होंने टूटी अलमारी को खोला रसोई की खाली पीपियों को टटोला बच्चों की गुल्‍लक तक देख डाली पर सब में मिला एक ही तत्‍त्‍व खाली…
कनस्‍तरों को, मटकों को ढूॅंढ़ा सब में मिला शून्य-ब्रह्मांड देखकर मेरे घर में ऐसा अरण्यकांड उनका खिला हुआ चेहरा मुरझा गया और उनके बीस सूची हृदय में रौद्र की जगह करुण रस समा गया, वे बोले, क्षमा कीजिए, हमें किसी ने गलत सूचना दे दी अपनी असफलता पर वे मन ही मन पछताने लगे
सिर झुकाकर वापिस जाने लगे मैंने उन्हें रोककर कहा, ठहरिए !
सिर मत धुनिए मेरी एक बात सुनिए मेरे घर में अधिक धन होता तो आप ले जाते अब जब मेरे घर में बिल्‍कुल धन नहीं है तो आप मुझे कुछ देकर क्‍यों नहीं जाते जिनके घर में सोने-चाँदी के पलंग और सोफे हैं उन्हंंे आप निकलवा लेते हैं बहुत अच्छी बात है, निकलवा लीजिए पर जिनके घर में बैठने को कुछ भी नहीं उनके यहाँ कम-से-कम एक तख्त तो डलवा दीजिए ।

(‘गोरी बैठी छत पर’ से)