(दूसरी इकाई) 5. ईमानदारी की प्रतिमूर

हमने अपने जीवन में बाबू जी के रहते अभाव नहीं देखा । उनके न रहने के बाद जो कुछ मुझपर बीता, वह एक दूसरी तरह का अभाव था कि मुझे बैंक की नौकरी करनी पड़ी । लेकिन उससे पूर्व बाबू जी के रहते मैं जब जन्मा था तब वे उत्तर प्रदेश में पुलिस मंत्री थे। उस समय गृहमंत्री को पुलिस मंत्री कहा जाता था । इसलिए मैं हमेशा कल्पना किया करता था कि हमारे पास ये छोटी गाड़ी नहीं, बड़ी आलीशान गाड़ी होनी चाहिए । बाबू जी प्रधानमंत्री हुए तो वहाँ जो गाड़ी थी वह थी, इंपाला शेवरलेट । उसे देख-देख बड़ा जी करता कि मौका मिले और उसे चलाऊँ । प्रधानमंत्री का लड़का था । कोई मामूली बात नहीं थी । सोचते-विचारते, कल्पना की उड़ान भरते एक दिन मौका मिल गया । धीरे-धीरे हिम्मत भी खुल गई थी ऑर्डर देने की। हमने बाबू जी के निजी सचिव से कहा-‘‘सहाय साहब, जरा ड्राइवर से कहिए, इंपाला लेकर रेजिडेंस की तरफ आ जाएँ ।’’

दो मिनट में गाड़ी आकर दरवाजे पर लग गई । अनिल भैया ने कहा- ‘‘मैं तो इसे चलाऊँगा नहीं । तुम्हीं चलाओ ।’’ मैं आगे बढ़ा । ड्राइवर से चाभी माँगी ।

बोला- ‘‘तुम बैठो, आराम करो, हम लोग वापस आते हैं अभी ।’’ गाड़ी ले हम चल पड़े । क्या शान की सवारी थी । याद कर बदन में झुरझुरी आने लगी है । जिसके यहाँ खाना था, वहाँ पहँुचा । बातचीत में समय का ध्यान नहीं रहा । देर हो गई ।

याद आया बाबू जी आ गए होंगे ।

वापस घर आ फाटक से पहले ही गाड़ी रोक दी । उतरकर गेट तक आया । संतरी को हिदायत दी । यह सैलूट-वैलूट नहीं, बस धीरे से गेट खोल दो । वह आवाज करे तो उसे बंद मत करो, खुला छोड़ दो। बाबू जी का डर । वह खट-पट सैलूट मारेगा तो आवाज होगी और फिर गेट की आवाज से बाबू जी को हम लोगों के लौटने का अंदाजा हो जाएगा। वे बेकार में पूछताछ करेंगे ।

 अभी बात ताजा है । सुबह तक बात में पानी पड़ चुका होगा । संतरी से जैसा कहा गया, उसने किया। दबे पैर पीछे किचन के दरवाजे से अंदर घुसा । जाते ही अम्मा मिलीं ।

पूछा – ‘‘बाबू जी आ गए ? कुछ पूछा तो नहीं ?’’

बोली – ‘‘हाँ, आ गए । पूछा था । मैंने बता दिया।’’

आगे कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ी, यह जानने-सुनने की कि बाबू जी ने क्या कहा फिर हिदायत दी-सुबह किसी को कमरे में मत भेजिएगा। रात देर हो गई । सुबह देर तक सोना होगा ।

सुबह साढ़े पाँच-पौने छह बजे किसी ने दरवाजा खटखटाया । नींद टूटी। मैंने बड़ी तेज आवाज में कहा- ‘‘देर रात को आया हँू, सोना चाहता हँू, सोने दो ।’’

यह सोचकर कि कोई नौकर चाय लेकर आया होगा जगाने ।

लेकिन दरवाजे पर दस्तक फिर पड़ी । झॅुंझलाता जोर से बिगड़ने के मूड में दरवाजे की तरफ बढ़ा बड़ाबड़ाता हुआ । दरवाजा खोला । पाया, बाबू जी खड़े हैं । हमें कुछ न सूझा । माफी माँगी । बेध्यानी में बात कह गया हँू । वे बोले- ‘‘कोई बात नहीं, आओ-आओ । हम लोग साथ-साथ चाय पीते हैं।’’

हमने कहा- ‘‘ठीक है !’’

बस जल्दी-जल्दी हाथ-मुँह धो चाय के लिए टेबल पर जा पहँुचा। लगा, उन्हें सारी रामकहानी मालूम है पर उन्होंने कोई तर्क नहीं किया। न कुछ जाहिर होने दिया ।

कुछ देर बाद चाय पीते-पीते बोले- ‘‘अम्मा ने कहा, तुम लोग आ गए हो पर तुम कहते हो रात बड़ी देर से आए। कहाँ चले गए थे ?’’ जवाब दिया- ‘‘हाँ, बाबू जी !

एक जगह खाने पर चले गए थे।’’ उन्होंने आगे प्रश्न किया- ‘‘लेकिन खाने पर गए तो कैसे ? जब मैं आया तो फिएट गाड़ी गेट पर खड़ी थी । गए कैसे?’’ कहना पड़ा-‘‘हम इंपाला शेवरलेट लेकर गए थे।

’’ बोले-‘‘ओह हो, तो आप लोगों को बड़ी गाड़ी चलाने का शौक है।’’ बाबू जी खुद इंपाला का प्रयोग न के बराबर करते थे और वह किसी ‘स्टेट गेस्ट’ के आने पर ही निकलती थी ।

उनकी बात सुन मैंने अनिल भैया की तरफ देख आँख से इशारा किया । मैं समझ गया था कि यह इशारा इजाजत का है । अब हम उसका आए दिन प्रयोग कर सकेंगे।

चाय खत्म कर उन्होंने कहा- ‘‘सुनील, जरा ड्राइवर को बुला दीजिए।’’

मैं ड्राइवर को बुला लाया । उससे उन्होंने पूछा- ‘‘तुम लॉग बुक रखते हो न?’’

उसने ‘हाँ’ में उत्तर दिया । उन्होंने आगे कहा- ‘‘एंट्री करते हो?’’

‘‘कल कितनी गाड़ी इन लोगों ने चलाई ?’’ वह बोला- ‘‘चौदह किलोमीटर ।’’ उन्होंने हिदायत दी- ‘‘उसमें लिख दो, चौदह किलोमीटर निजी उपयोग ।’’

तब भी उनकी बात हमारी समझ में नहीं आई फिर उन्होंने अम्मा को आज के उपभोक्‍तावादी युग में पनप रही दिखावे की संस्‍कृति पर अपने विचार लिखिए । लेखनीय 70 बुलाने के लिए कहा । अम्मा जी के आने पर बोले- ‘‘सहाय साहब से कहना, साठ पैसे प्रति किलोमीटर के हिसाब से पैसे जमा करवा दें ।’

इतना जो उनका कहना था कि हम और अनिल भैया वहॉं रुक नहीं सके । जो रुलाई छूटी तो वह कमरे में भागकर पहॅुंचने के बाद भी काफी देर तक बंद नहीं हुई । दोनों ही जन देर तक फूट-फूटकर रोते रहे।

आपसे यह बात शान के तहत नहीं कर रहा पर इसलिए कि ये बातें अब हमारे लिए आदर्श बन गई हैं । सक्रिय राजनीति में आने पर, सरकारी पद पाने के बाद क्या उसका दुरुपयोग करने की हिम्मत मुझमें हो सकती है? आप ही सोचें, मेरे बच्चे कहते हैं कि पापा, आप हमें साइकिल से भेजते हैं। पानी बरसने पर रिक्शे से स्कूल भेजते हैं पर कितने ही दूसरे लोगों के लड़के सरकारी गाड़ी से आते हैं । वे छोटे हैं उन्हें कलेजा चीरकर नहीं बता सकता । समझाने की कोशिश करता हँू । जानता हँू, मेरा यह समझाना कितना कठिन है फिर भी समय होने पर कभी-कभी अपनी गाड़ी से छोड़ देता हँू । अपना सरकारी ओहदा छोड़कर आया हँू और आपके साथ यह सब फिर जिक्र कर तनिक ताजा और नया महसूस करना चाहता हँू । कोशिश करता हँू, नींव को पुनः सँजोना-सँवारना कि मेरे मन का महल आज के इस तूफानी झंझावत में खड़ा रह सके ।

याद आते हैं बचपन के वे हसीन दिन, वे पल, जो मैंने बाबू जी के साथ बिताए । वे अपना व्यक्तिगत काम मुझे सौंप देते थे और मैं कैसा गर्व अनुभव करता था । एक होड़ थी, जो हम भाइयों में लगी रहती थी । किसे कितना काम दिया जाता है और कौन उसे कितनी सफाई से करता है।

 एक दिन बोले-‘‘सुनील, मेरी अलमारी काफी बेतरतीब हो रही है, तुम उसे ठीक कर दो और कमरा भी ठीक कर देना ।’’ मैंने स्कूल से लौटकर वह सब कर डाला। दूसरे दिन मैं स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहा था कि बाबू जी ने मुझे बुलाया ।

पूछा- ‘‘तुमने सब कुछ बहुत ठीक कर दिया, मैं बहुत खुश हँू पर वे मेरे कुरते कहाँ हैं?’’ मैं बोला- ‘‘वे कुरते भला ! कोई यहाँ से फट रहा था, कोई वहाँ से। वे सब मैंने अम्मा को दे दिए हैं ।’’

उन्होंने पूछा- यह कौन-सा महीना चल रहा है?

मैंने जवाब दिया- अक्तूबर का अंतिम सप्ताह ।

उन्होंने आगे जोड़ा- ‘‘अब नवंबर आएगा । जाड़े के दिन होंगे, तब ये सब काम आएँगे । ऊपर से कोट पहन लँूगा न !’’ मैं देखता रह गया ।

क्या कह रहे हैं बाबू जी ? वे कहते जा रहे थे-‘‘ये सब खादी के कपड़े हैं । बड़ी मेहनत से बनाए हैं बीनने वालों ने। इसका एक-एक सूत काम आना चाहिए ।’’

यही नहीं, मुझे याद है, मैंने बाबू जी के कपड़ों की तरफ ध्यान देना शुरू किया था । क्या पहनते हैं, किस किफायत से रहते हैं। मैंने देखा था, एक बार उन्होंने अम्मा को फटा हुआ कुरता देते हुए कहा था-‘इनके रूमाल बना दो ।’

बाबू जी का एक तरीका था, जो अपने आप आकर्षित करता था । वे अगर सीधे से कहते-सुनील, तुम्हें खादी से प्यार करना चाहिए, तो शायद वह बात कभी भी मेरे मन में घर नहीं करती पर बात कहने के साथ-साथ उनके अपने व्यक्तित्व का आकर्षण था, जो अपने में सामने वाले को बाँध लेता था । वह स्वतः उनपर अपना सब कुछ निछावर करने पर उतारू हो जाता था ।

अम्मा बताती हैं- हमारी शादी में चढ़ावे के नाम पर सिर्फ पाँच ग्राम सोने के गहने आए थे, लेकिन जब हम विदा होकर रामनगर आए तो वहाँ उन्हें मुँह दिखाई में गहने मिले । सभी नाते-रिश्तेवालों ने कुछ-न-कुछ दिया था । जिन दिनों हम लोग बहादुरगंज के मकान में आए, उन्हीं दिनांे तुम्हारे बाबू जी के चाचा जी को कोई घाटा लगा था । किसी तरह से बाकी का रुपया देने की जिम्‍मेदारी हमपर आ पड़ी-बात क्या थी, उसकी ठीक से जानकारी लेने की जरूरत हमने नहीं सोची और न ही इसके बारे में कभी कुछ पूछताछ की ।

एक दिन तुम्हारे बाबू जी ने दुनिया की मुसीबतों और मनुष्य की मजबूरियों को समझाते हुए जब हमसे गहनों की माँग की तो क्षण भर के लिए हमें कुछ वैसा लगा और गहना देने में तनिक हिचकिचाहट महसूस हुई पर यह सोचा कि उनकी प्रसन्नता में हमारी खुशी है, हमने गहने दे दिए। केवल टीका, नथुनी, बिछिया रख लिए थे। वे हमारे सुहागवाले गहने थे । उस दिन तो उन्होंने कुछ नहीं कहा, पर दूसरे दिन वे अपनी पीड़ा न रोक सके । कहने लगे-‘‘तुम जब मिरजापुर जाओगी और लोग गहनों के संबंध में पूछेंगे तो क्या कहोगी ?’’

हम मुसकराईं और कहा- ‘‘उसके लिए आप चिंता न करें । हमने बहाना सोच लिया है । हम कह देंगी कि गांधीजी के कहने के अनुसार हमने गहने पहनने छोड़ दिए हैं । इसपर कोई भी शंका नहीं करेगा ।’’ तुम्हारे बाबू जी तनिक देर चुप रहे, फिर बोले- ‘‘तुम्हंे यहाँ बहुत तकलीफ है, इसे मैं अच्छी तरह समझता हँू । तुम्हारा विवाह बहुत अच्छे, सुखी परिवार में हो सकता था, लेकिन अब जैसा है वैसा है । तुम्हें आराम देना तो दूर रहा, तुम्हारे बदन के भी सारे गहने उतरवा लिए।’’

हम बोलीं- ‘‘पर जो असल गहना है वह तो है । हमें बस वही चाहिए। आप उन गहनों की चिंता न करें। समय आ जाने पर फिर बन जाएँगे । सदा ऐसे ही दिन थोड़े रहेंगे । दुख-सुख तो सदा ही लगा रहता है ।’’

(‘लाल बहादुर शास्‍त्री : मेरे बाबूजी’ से)