चाहे सभी सुमन बिक जाएँ चाहे ये उपवन बिक जाएँ
चाहे सौ फागुन बिक जाएँ पर मैं गंध नहीं बेचूँगा
अपनी गंध नहीं बेचूँगा ।।
जिस डाली ने गोद खिलाया जिस कोंपल ने दी अरुणाई
लछमन जैसी चौकी देकर जिन काँटों ने जान बचाई
इनको पहिला हक आता है चाहे मुझको नोचें-तोड़ें
चाहे जिस मालिन से मेरी पँखुरियों के रिश्ते जोड़ें
ओ मुझपर मँड़राने वालो मेरा मोल लगाने वालो
जो मेरा संस्कार बन गई वो सौगंध नहीं बेचूँगा ।
अपनी गंध नहीं बेचूँगा ।।
मौसम से क्या लेना मुझको ये तो आएगा-जाएगा
दाता होगा तो दे देगा खाता होगा तो खाएगा ।
कोमल भँवरों के सुर सरगम पतझरों का रोना-धोना
मुझपर क्या अंतर लाएगा पिचकारी का जादू-टोना
ओ नीलाम लगाने वालो पल-पल दाम बढ़ाने वालो
मैंने जो कर लिया स्वयं से वो अनुबंध नहीं बेचूँगा ।
अपनी गंध नहीं बेचूँगा ।।
मुझको मेरा अंत पता है पँखुरी-पँखुरी झर जाऊँगा
लेकिन पहिले पवन परी संग एक-एक के घर जाऊँगा
भूल-चूक की माफी लेगी सबसे मेरी गंध कुमारी
उस दिन ये मंडी समझेगी किसको कहते हैं खुद्दारी
बिकने से बेहतर मर जाऊँ अपनी माटी में झर जाऊँ
मन ने तन पर लगा दिया जो वो प्रतिबंध नहीं बेचूँगा ।
(‘अपनी गंध नहीं बेचूँगा’ से)