१०. अपराजेय

स्‍ट्रेचर को धकेलते हुए वे बड़ी तेजी से अस्‍पताल के गलियारे से ले जा रहे थे । स्‍ट्रेचर के पीछे घर के सदस्‍यों, मित्रों, परिजनों और पड़ोसियों का एक काफिला-सा था । सभी के चेहरों पर अकुलाहट थी । त्‍वरा से नर्सों ने स्‍ट्रैचर को ऑपरेशन थिएटर के भीतर धकेला और दरवाजा बंद हो गया । सभी बाहर रुके खड़े थे । अमरनाथ के परिवार के लोग परेशान थे । उनका बेटा अनिल बंेच पर मुँह नीचा किए बैठ गया था । ‘धीरज रखो,’ चोपड़ा ने उसके कंधे थपथपाए थे ।

 ‘उम्‍मीद बहुत कम है । डॉक्‍टर ने कोई आश्वासन नहीं दिया है ।’ ‘पर हुआ कैसे ?’

 दुर्घटना हाईवे पर हुई थी । हम तो दुपहर से ही इंतजार कर रहे थे । दुबारा बाबू जी ने मोबाइल पर बताया कि वे सुबह नहीं निकल सके । इसलिए शाम तक ही पहुँचंेगे । नौ बजे तक वे नहीं पहुँचे तो सब चिंतित हुए । मोबाइल की घंटी बज रही थी, पर कोई उठा नहीं रहा था । रास्‍ते में रुकना तो उन्हें था ही नहीं । अगर रुकते भी तो फोन पर बता सकते थे । आसपास कई जगह फोन किया । लेकिन कुछ पता नहीं चला । रात के एक बजे हम पुलिस स्‍टेशन पहुँचे । पुलिस से मदद माँगी । सुबह पाँच बजे फोन आया था । उन्होंने बताया कि इस नंबर की गाड़ी अलवर के रास्‍ते में दुर्घटनाग्रस्‍त हुई थी । दुर्घटनास्‍थल पर भयावह दृश्य था । किसी के बचने की उम्‍मीद नहीं थी । अनिल धीरज को साथ लेकर गया था ।

 ‘भगवान मन मंे चिंता थी । अपनी-अपनी बात कह रहे थे ।

 ‘अमरनाथ जैसा इनसान । उनके साथ भी यही होना था !’

 ‘ट्रकवाला जरूर पिया होगा । परंतु सबूत कोई नहीं था, वह तो रुका ही नहीं वहाँ, टक्‍कर मारकर निकल गया । इन्सानियत का भी सबूत दिया हाेता तो ड्राइवर भी बच जाता । अधिक रक्‍तस्राव से उसकी मृत्‍यु हुई । दस साल से इस परिवार के साथ था ।’

 दस-पंद्रह मिनट का समय भी मुश्किल से गुजर रहा था । अनिल से बताया था तो सबके चेहरे बुझ गए थे । ‘यह कैसे हो सकता है ?

बच गया, इसलिए हैरान हो क्‍या ? मुझे अभी मरना ही नहीं था, इसलिए बच गया ।’ वे हँसे थे ।

 किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि उनसे बात कैसे की जाए । सब चुप थे । अमरनाथ अपनी रौ में कह रहे थे, ‘भाग्य[1]शाली हूँ, इसलिए बच गया । मुझे ड्राइवर का दुख है । अगर मैं उस वक्‍त बेहोश न हुआ होता तो उसे बचा लेता कभी-भी मरने न देता ।’

 सब चुप उनकी बात सुन रहे थे । उनकी तरफ देखकर अमरनाथ ने पूछा था, ‘कुछ समस्‍या ? मुझसे कुछ छिपा रहे हो तुम ! क्‍या हुआ ?’

 अनिल ने डॉक्‍टर की तरफ देखकर कहा था, अाप ही बता दीजिए डॉक्‍टर ।’ डॉक्‍टर ने अपने को समेटते हुए-सा कहा था, ‘अमरनाथ जी, ऐसी दुर्घटना में आप बच गए हैं, यह एक चमत्‍कार है । अब आप ठीक भी हो जाएँगे । लेकिन… ।’ डॉक्‍टर अटका था । हिम्‍मत जुटाकर कह दिया था, ‘देखिए आपकी टाँग बुरी तरह से कुचली गई है । बिना देखभाल के चार घंटे आप वहाँ पड़े रहे । उनमें जहर फैल गया है । इसलिए…।’ वह रुका था ।

‘आपकी टाँग काटनी पड़ेगी । नहीं तो शरीर में जहर फैलने का अंदेशा है ।’ अमरनाथ ने अपने परिवार के लोगों की तरफ, फिर डॉक्‍टर की तरफ देखा था और हँसे थे ।

 ‘टाँग ही काटनी है तो काट दो । साठ साल तक इन टाँगों के साथ जिया हूँ । खूब घुमक्‍कड़ी की है मैंने । देश में, विदेशों में, पहाड़ों पर, समुद्र के किनारे रेगिस्‍तान में, पठारों में, सभी जगह घूमता रहा हूँ । जीने के लिए सिर्फ टाँगें थोड़ी ही हैं मेरे हाथ हैं देखो !’ उन्होंने दोनों हाथ उपर उठाए थे । ‘मेरा बाकी शरीर है ।’

 वे खुलकर हँसे थे । डॉक्‍टर ने चैन की साँस ली थी ।

 अनिल बढ़कर पिता के गले लग गया था ।

 ‘बाबू जी-ऽ बाबू जी-ऽ’

‘अरे ! इसमें ऐसा क्‍या है ? मेरा जीवन मेरी इस तीन फीट की टाँग से तो बड़ा ही होगा न । फिर क्‍या है ?’

 अमरनाथ की टाँग कट गई थी । वे घर गए थे । एक स्‍वचालित व्हीलचेयर उनके लिए आ गई थी । जिस पर बैठकर वे घर भर में घूमते थे । अमरनाथ के कहने पर घर में कैनवस, रंग, ब्रश और ईजल, सब सामान आ गया था । उन्होंने ईजल पर कैनवास लगाया था । वे हँसते हुए कहते, ‘देखो, वर्षों तक मैं चित्रकार बनने और चित्र बनाने की सोचता रहा, पर मुझे फुरसत

ही नहीं मिली । मैंने विश्वभर में कलादीर्घाओं में विश्व के बड़े-बड़े चित्रकारों के चित्र देखे हैं और सराहे हैं । पर जब भी मैं उन्हें देखता तो उन चित्रों में मैं अपने रंगों के लगाए जाने की कल्‍पना करता था । फिर सारा परिदृश्य ही बदल जाता था ।

 इन मानव आकृतियों के चित्रों में मूर्तिशिल्‍प का समन्वय था । स्‍त्री रंगों के बिना जहाँ उन्होंने रेखाओं से आकृतियाँ बनाई थीं, वहाँ उनमंे मांस, मज्‍जा और अस्‍थियाँ तक को देखा जा सकता था । रेखाओंवाले चित्रों मंे एक प्रवाह, ऊर्जा, उमंग और चुस्‍ती-फुर्ती थी । लगता था, ये आकृतियाँ अभी संवाद करेंगी, हाथ पकड़कर साथ हो लेंगी । इतनी जीवंतता । रंग-रेखाओं से उनका प्यार उनकी हर साँस से निःसृत होता, जो उनके चित्रों को सजीव कर देता । लगता था, वे हर दृश्य, परिदृश्य, स्‍थिति और व्यक्‍ति को रंगों और रेखा में ढाल देंगे ।

* अमरनाथ घर के भीतर कैनवास पर फूलों, पत्‍तों झरने और हरियाली के चित्र बनाते, वहीं घर के बाहर की जितनी खुली जमीन थी, माली के साथ उन्होंने उस जमीन को तैयार करवाया था । सामने की जमीन में बगीचा बनाया था, जिसमें रंग-बिरंगे मौसम के फूल क्‍यारियों में लगाए थे । उन्होंने ॠतुओं के क्रम से फूलों के पौधे लगवाए थे । गरमी के बाद बरसात और बरसात के बाद सरदी के पौधों में फूल खिलते । घर के पीछे की जमीन में उन्होंने फलों के पेड़ लगा दिए थे । घर की चारदीवारी के साथ फूलों और फलों की बेलें चढ़ा दी थीं । घर और बाहर के लोग आश्चर्यसे उनकी ओर देखते । वे हँसते, मैं जीवन का व्याकरण बना रहा हूँ। जीवन के अछूते सच के शिखर पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ लगा रहा हूँ ,’ कहकर हँसने लगते ।

 डॉक्‍टर ने खून की फिर से जाँच करवाई थी । खून की जाँच की रिपोर्टआई तो वह परेशान हो गया था । घर के लोग चिंतित थे, अब क्‍या हो गया ? डॉक्‍टर ने बताया था, ‘बीमारी फिर से पसर रही है ।’ उनकी दाईं बाँह में खून की गर्दिश बंद हो गई थी । धीरे-धीरे बाँह हिलाना भी मुश्किल हो गई । बाँह निर्जीव होकर काठ-सी हो गई थी । बहुत सारी दवाइयाँ दी जा रही थीं । घर पर ही नर्सरख ली थी । घर का कोई-न-कोई सदस्य भी आस-पास ही रहता । डॉक्‍टर ने बताया, ‘जहर फैल गया है । अब और रुकानहीं जा सकता । पहले से भी ज्‍यादा भयावह स्‍थिति । बाँह काटनी पड़ेगी ।’ घर के लोग सन्न थे । लेकिन फैसला तो बाबू जी को ही लेना था । वे वैसी हँसी हँसे थे ।

आखिर मैं बाँह तो नहीं हूँ न !’ सप्ताह भर बाद अमरनाथ अस्‍पताल से लौट आए थे । उनकी दाईं बाँह काट दी गई थी । उन्होंने जल्‍दी ही बाएँ हाथ से अपना काम करना सीख लिया था । धीरे-धीरे वे अपने सारे काम खुद ही करने लगे थे । उनके लिए खुले कमीज सिलवाए गए थे । वे पहले की ही तरह सामान्य लग रहे थे । अमरनाथ के कहा था, ‘कल से मैं शास्‍त्रीय संगीत सीखना शुरू करूँगा । शास्‍त्री जी को सूचित कर दो कि वे कल से आ जाएँ । बचपन में मैंने सीखना शुरू किया था, पर कहीं सीखा था । बीच में ही छोड़ना पड़ा था ।’

 शास्‍त्री जी आ गए थे । अमरनाथ ने शास्‍त्रीय गायन सीखना शुरू कर दिया । सुबह का समय उनके रियाज का समय था । दिन में शास्‍त्री जी आते थे । शाम को फिर अभ्‍यास करते । पहले रंग और रेखाएँ थीं, अब स्‍वर लहरियाँ थीं । स्‍वर-साधना में वे ध्वनियों का आह्‌वान करते । कभी ध्रुपद की गायकी की खुली खेलते अवतरित होते । शास्‍त्री जी कभी-कभार खयाल में तान अलापते तो कभी ठुमरी के उनके शब्‍दों के भाव स्‍वरों मंे बँधकर मन-प्राण तक पहुँच जाते ।

जहाँ लौकिक और अलौकिक, भौतिक और आत्‍मिक तथा स्‍थूल और सूक्ष्म की सारी सीमाएँ टूट गई थीं । मानों स्‍वर जीवन का एक नया बोध, एक नया अर्थ उद्घाटित कर रहे हों । इस सबके साथ भी अमरनाथ की डॉक्‍टरी जाँच अपने निश्चित समय पर होती थी । वे फिर बीमार पड़े, वही तेज बुखार । डॉक्‍टर के चेहरे पर वही चिंता । घर के लोग दुख से व्याकुल । ‘अब क्‍या होगा डॉक्‍टर ?’ उन्हें अस्‍पताल ले जाया गया । वे सप्ताह भर बाद लौट आए थे । उनकी आवाज जा चुकी थी । पर उनकी आँखें हँस रही थीं वैसी ही हँसी जैसे कह रही हों, देखो, मैं जीवित हूॅं । मुझे चुनौती मत दो ।’ जीवनानुभव और कला के अनुभव की एकात्‍मता का खौलता सच ।

 उनके कहने पर शास्‍त्रीय संगीतज्ञों के कैसेट और डिस्‍क, उनका म्‍यूजिक सिस्‍टम उनके कमरे के साइन बोर्ड पर रख दिया गया । उनके कमरे की सज्‍जा नए सिरे से उनकी सुविधानुसार कर दी गई । उन्होंने इशारों से बताया था, ‘मैंने संगीत सीखा, पर सुना तो था ही नहीं । मेरी साधना अधूरी रही । जिन्होंने अपनी साधना पूरी की, उनकी सिद्‌धि का लाभ तो ले सकता हूँ ।’ उनकी दिनचर्या बदल गई थी । वे मुसकराते, इशारों में जैसे कहते हों, ‘म

आनंद में हूँ । वे सुबह उठते, अपनी व्हीलचेयर पर बाहर खुले में बगीचे में बैठ जाते । पक्षियों का कलरव सुनते । सूखे पत्‍तों के झरने की आवाज, कलियों के चटखने की आवाजें उन्हें सुनाई देतीं । उन्हें ओस की टिपटिप पत्‍तियों के खुलने की, धीमी हवा के सरसराने की सूक्ष्म ध्वनियाँ बहुत स्‍पष्‍ट सुनाई पड़ने लगी थीं । उनके चेहरे पर एक उजास दीपता था । आँखें बंद करके कजरी की तान सुनते । दिन में वे अपनी रुचि और समय की अनुकूलता से शास्‍त्रीय गायन की सी. डी. सुनते । घर के लोग चाहते थे, जैसे भी हो, वे जो चाहते हों करें । वे उन्हें इतनी खुशी तो दे ही सकते थे ।

इस समय अलवैर कामू का ‘कालिगुला नाटक’ उनके भीतर मंचित होता है । ईश्वर क्रू रोमन शहंशाह कालिगुला बन गया है । अपनी इच्छा से वह मेरे अंगों को कटवाता जा रहाहै । जैसे-जैसे उसे जरूरत पड़ती है, उसी क्रम से वह एक-एक अंग-भंग कर मुझे मरवा रहा है । मुझे कालिगुला के विरुद्ध एक शांत संघर्षकरना है क्‍योंकि मैं जानता हूँ जीवन का विकास पुरुषार्थ में है, आत्‍महीनता में नहीं ।

 वे सोचते सारे गत्‍यावरोध समाप्त हों । निर्बंध हूँमैं । जीवन का हर पल, हर वस्‍तु, हर स्‍थिति अद्‌वितीय हो । मेरी अपराजेय आस्‍था जीवन के अंतिम साक्ष्य मंे मुझे निर्भय कर दे ।’ ……