१०. उलझन

रमा कई दिनों से परेशान – सी लग रही थी माँ से उसकी यह उलझन छिपी नहीं थी रात में रमा खाना खाकर पढ़ने की बजाय अपने पलंग पर लेटी छत देख रही थी बेटी के पास बैठते हुए माँ ने पूछा, “बेटा, कई दिनों से देख रही हूँ कि तुम कुछ परेशान हो क्या बात है ?”

“माँ, हम लोग परीक्षा के बाद हमे कहीं न कहीं घूमने जाते हैं। उसमें बहुत पैसा खर्च होता है न । कितना होता होगा ?” हिचकते हुए रमा ने पूछा माँ के अधरों पर मुसकान तैर गई, “तो तुम खर्च को लेकर परेशान हो ?” रमा बोली, “नहीं माँ, हम लोग इस बार अगर कहीं न जाएँ तो क्या वह पैसा मुझे मिल सकता है ?” “तुम्हें इतने पैसों की क्या जरूरत पड़ी ?” माँ की आवाज में आश्चर्य था। “माँ, सुलक्षणा की माँ की

तबीयत ठीक नहीं है। डॉक्टर ने ऑपरेशन के लिए कहा है। आपको मालूम है कि मा परिवार होने के कारण उनका खर्च पूरा नहीं पड़ता गरीबी के कारण ये इलाज नहीं करा सकते। मैं सोच रही थी कि ये पैसे उनके काम आ जाएँगे ।” रमा बोली

माँ ने कहा, “बहुत सारे डॉक्टर पापा के मित्र हैं। तुम ही सुलक्षणा से कहना कि से. वह अपनी माँ को लेकर आ जाए। उनका इलाज हम लोग करवाएँगे ।” “सब माँ, तुम कितनी अच्छी हो ।” रमा की आँखों में खुशी छलक उठी थी। रमा के माथे को चूमती हुई माँ बोली, “मेरी बेटी सबसे अच्छी है क्योंकि उसका दिल दूसरों की तकलीफ से दुखी होता है ।” सुनकर रमा का मन खिल उठा।

– नीलम राकेश