१. कह कविराय

गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय ।

 जैसे कागा-कोकिला, शब्‍द सुनै सब कोय ।।

 शब्‍द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन ।

 दोऊ के एक रंग, काग सब भये अपावन ।।

 कह गिरिधर कविराय, सुनौ हो ठाकुर मन के ।

 बिन गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के ।।

 देखा सब संसार में, मतलब का व्यवहार ।

 जब लगि पैसा गाँठ में, तब लगि ताको यार ।।

 तब लगि ताको यार, यार सँग ही सँग डोलै ।

 पैसा रहा न पास, यार मुख से नहि, बोलै ।।

 कह गिरिधर कविराय, जगत का ये ही लेखा ।

 करत बेगरजी प्रीति, मित्र कोई बिरला देखा ।।

 झूठा मीठे वचन कहि, ॠण उधार ले जाय ।

 लेत परम सुख ऊपजै, लैके दियो न जाय ।।

 लैके दियो न जाय, ऊँच अरु नीच बतावै ।

 ॠण उधार की रीति, माँगते मारन धावै ।।

 कह गिरिघर कविराय, जानि रहै मन में रूठा ।

 बहुत दिना हो जाय, कहै तेरो कागज झूठा ।।

बिना विचारे जो करै, सो पाछै पछताय ।

 काम बिगारै आपनो, जग में होत हँसाय ।।

 जग में हाेत हँसाय, चित्‍त में चैन न आवै ।

 खान-पान-सनमान, राग-रंग मनहि न भावै ।।

 कह गिरिधर कविराय, दुख कछु टरत न टारे ।

 खटकत है जिय माँहि, कियो जो बिना विचारे ।।

 बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ ।

 जो बनि आवै सहज मंे, ताही में चित देइ ।।

 ताही में चित देइ, बात जोई बनि आवै ।

 दुर्जन हँसे न कोय, चित्‍त में खता न पावै ।।

 कह गिरिधर कविराय यहै करु मन परतीती ।

 आगे की सुधि लेइ, समझु बीती सो बीती ।।

 

 * पानी बाढ़ो नाव में, घर में बाढ़ो दाम ।

दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानो काम ।।

यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै ।

परस्‍वास्‍थ के काज, शीस आगे कर दीजै ।।

कह गिरिधर कविराय, बड़ेन की याही बानी ।

चलिए चाल सुचाल, राखिए अपनो पानी ।।

-गिरिधर