१. चाँदनी रात

चारु चंद्र की चंचल किरणें

 खेल रही हैं जल-थल मंे ।

 स्‍वच्छ चाँदनी बिछी हुई है

 अवनि और अंबर तल में ।।

 पुलक प्रगट करती है धरती

हरित तृणों की नोकों से ।

 मानो झूम रहे हैं तरु भी

 मंद पवन के झोंकों से ।।

क्‍या ही स्‍वच्छ चाँदनी है यह

 है क्या ही निस्‍तब्‍ध निशा ।

 है स्‍वच्छंद-सुमंद गंध वह

 निरानंद है कौन दिशा ?

बंद नहीं, अब भी चलते हैं

 नियति नटी के कार्य-कलाप ।

 पर कितने एकांत भाव

 से कितने शांत और चुपचाप ।।

है बिखेर देती वसंुधरा

 मोती, सबके सोने पर ।

 रवि बटोर लेता है उनको

 सदा सबेरा होने पर ।।

 और विरामदायिनी अपनी

 संध्या को दे जाता है ।

 शून्य श्याम तनु जिससे उसका

 नया रूप छलकाता है ।।

 पंचवटी की छाया में है

 सुंदर पर्ण कुटीर बना ।

 उसके सम्‍मुख स्‍वच्छ शिला पर

 धीर-वीर निर्भीक मना ।।

 जाग रहा यह कौन धनुर्धर

 जबकि भुवन भर सोता है ?

 भोगी कुसुमायुध योगी-सा

 बना दृष्‍टिगत होता है ।।

 (‘पंचवटी’ से)