शाल और सागौन वनांे को, पार किया शबरी ने,
सुन रक्खा था नाम कभी, पंपासर का शबरी ने ।
पंपासर में बड़े-बड़े ॠषि-मुनियों के हैं आश्रम
ज्ञान-व्यान, तप-आराधन के तीर्थरूप हैं आश्रम ।
प्रातःकाल हुआ ही था, सब स्नान-ध्यान में रत थे,
यज्ञ आदि के लिए बटुक जन लकड़ी बीन रहे थे ।
कोई क्यारी छाँट रहा था, सींच रहा जल कोई,
दुही जा चुकी थीं गायें सब, रँभा रही थीं कोई ।
गीले आँगन में हरिणों के, खुर उभरे पड़ते थे,
बैठ आम की डाली पर, तोते चीखे पड़ते थे ।
जलकलशी ले ॠषिकन्याएँ, पोखर आतीं-जातीं,
भीगी, एकवसन में वे सब, धुले चरण घर चलतीं ।
यज्ञ वेदियाँ सुलग चुकी थीं, वेदपाठ था जारी,
कितनी दिव्य और भव्य थी, शांति यहाँ की सारी ।
थी विशाल कितनी हरीतिमा, शोभित थीं पगवाटें,
था विराट वट वृक्ष खड़ा, फैलाए वृद्ध जटाएँ ।
दूर किसी एकांत विजन में, मुग्ध मयूरी तन्मय,
देख रही अपने प्रिय का रास नृत्य जो रसमय ।
हरसिंगार, चंपा, कनेर, कदली, केला थे फूले,
कमलों पर टूटे पड़ते थे भ्रमर सभी रस भूले ।