दृश्य १ (जंगल में लकड़हारा पेड़ काट रहा है । कुल्हाड़ी के वार से आहत हो पेड़ दर्द से कराहता है । )
पेड़ ः लकड़हारे भाई ! मुझे मत काटो । मैं आप सबके काम आनेवाला हूँ ।
विश्वास ः मेरे बच्चे भूखे हैं । मैं क्या कँरू ? तुम्हारी लकड़ी काटकर बाजार में बेचूँगा, चार पैसे मिलेंगे। तभी चूल्हा जलेगा । बच्चों का कष्ट देखा नहीं जाता ।
पेड़ ः (भयभीत होकर) नहीं-नहीं । रुक जाओ भाई । क्या पूरा काट डालोगे मुझे ? मैं भी तुम्हारे बेटे जैसा हॅंू ।
विश्वास ः ओफ ओ, बेटे का नाम ले लिया । मैं तुम्हें नहीं काट सकता । आज घर में चूल्हा नहीं जलेगा।
पेड़ ः तुमने इनसानियत दिखाई । चलो इनसानियत की इस बात पर तुम्हें एक अनोखा उपहारदेताहूँ ।
विश्वास ः (खुश होकर) कहते हैं न अंधे को आँख और भूखे को खाना इससे ज्यादा और क्या चाहिए ।
पेड़ ः (पार्श्वमंे नन्हे हाथी के चिंघाड़ने का स्वर गूंॅजता है ।) ये नन्हा हाथी अपने परिवार से बिछड़ गया है । इसे तुम अपने साथ ले जाओ । यह बीमार है बेचारा, आठ दिनों से भूखा है ।
विश्वास ः (चौंककर) क्या कहा ? इसको अपने साथ ले जाऊँ ? यहाँ तो अपने रहने का ठौर-ठिकाना नहीं है , इसे कहाँ रखूँगा ? क्या खिलाऊँगा ? और डॉक्टर को पैसे कहाँ से दूँगा ?
पेड़ ः मेरी बात मानकर इसे अपने साथ ले जाओ । तुम्हारे काम अवश्य आएगा ।
विश्वास ः यह कैसी सौदेबाजी है ? घर ले जाकर इसका क्या अचार डालूँगा ?
पेड़ ः भई, मैं कई जगह से कटा हुआ हूँ । अब आँधी-तूफान में कैसे बचूँगा ? इसे अपने पास नहीं रख सकता। क्या यह तुम्हारा बेटा नहीं बन सकता ? क्या यह तुम्हारा प्यार नहीं पा सकता ?
विश्वास ः ठीक कहते हो । तुम्हें काटकर मैंने बहुत बड़ा अपराध किया है । अब दुबारा यह काम नहीं करूँगा। कोई-न-कोई रास्ता निकल आएगा। आज से मैं इसे सोनू कहूँगा । इसे देखकर बच्चे खुश होंगे ।
दृश्य २ (घर के आंॅगन में नन्हाहाथी और विश्वास खड़े हैं । सोनू स्वभाववश चिंघाड़ताहै । सुमित्रा दरवाजा खोलकर बाहर आती है । पति के साथ नन्हेहाथी को देखकर चौंक पड़ती है ।)
विश्वास ः (साेनू से) सोनू ये है तुम्हारी माता जी ।
सुमित्रा ः (झल्लाते हुए) ये क्या देख रही हँू ? घर में नहीं हैं दाने अम्मा चली भुनाने! किसको पकड़ लाए हो ? घर में दो बच्चे हैं, उनकी चिंता नहीं है तुम्हें? इसको भी ले आए। कहॉं रखोगे, क्या खिलाओगे ?
विश्वास ः कुछ भी कह देती हो ? अब लौटा नहीं सकता । अपने हिस्से की आधी रोटी खिलाऊँगा इसे ।
दृश्य ३ (सोनू के चिंघाड़ने का स्वर उभरता है । विश्वास को बीमार और दुखी पाकर खंूॅटा तोड़कर घर के अंदर आने का प्रयास करता है।)
विश्वास ः (खुशी से) आ जा मेरे लाड़ले, तेरे पास आते ही कलेजे में ठंडक पहँुच रही है । मुझे बड़ा दुख है कि मैं तुम्हारे लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पा रहा हँू ।
सुमित्रा ः (गुस्से से) मैं तुम्हें इसे ……. घर में नहीं रहने दूँगी।
विश्वास ः ऐसा मत कहो । देखती नहीं यह कितना समझदार हो गया है । मुझे बीमार देखकर मेरे पास दौड़ा चला आया । अब तो बच्चे भी इसे पसंद करने लगे हैं ।
सुमित्रा ः (सिसकती हुई) मैं इसकी दुश्मन थोड़े ही हूँ । मुझे अफसोस इस बात का है कि इसे भी अपने साथ भूखा रहना पड़ रहा है । घर में फूटी कौड़ी नहीं है । कहॉं से दाना-पानी जुटाऊॅं ?
विश्वास ः यही तो जिंदगी है भागवान । इनसान को खूब लड़ना पड़ता है । चल बेटा सोनू बाहर चल, तुझे कुछ
खिला-पिलाकर लाता हँू । तेरे लिए दवा ले आता हूँ ।
सुमित्रा ः नहीं ? मैं तुम्हें इस बीमार हालत में बाहर नहीं जाने दूँगी । मैं ही सोनू को खिलाती-पिलाती हूँ ।
विश्वास ः (कुछ सोचकर) सुना है, पड़ोस के गॉंव में बहुत बड़ा मेला लगा है । सोनू को भी साथ ले जाऊॅंगा। गॉंववाले इसे केले और गन्ने खिलाऍंगे । (सोनू विश्वास की बात समझकर स्वीकृति में सिर हिलाता है ।)
सुमित्रा ः मैं भी चलूँगी साथ में । बच्चे भी चलेंगे । (वह सोनू के गले लिपट जाती है ।)
बड़ा बेटा ः पिता जी, साेनू के ठीक हो जाने पर हम उसे उसके असली घर जंगल में छोड़ देंगे ।