२. बिल्‍ली का बिलंुगड़ा

एक समय था जब घरों में बिल्‍ली का आना-जाना बुरा समझा जाता था । परंतु आजकल की परिस्‍थिति के कारण पुरानी विचारधारा और परंपरा एकदम घपले में पड़ गई है । वही विचार ठीक समझा जाता है जिससे काम चले । पिछले दिनों हमारे घर में बहुत चूहे हो गए थे । उन्हें घर से निकालने के बहुतेरे प्रयत्‍न किए गए पर हमारी एक न चली । आटे और अनाज के लिए लोहे के ढोल बनवाए गए । यह उपाय कुछ दिनों तक कारगर रहा । परंतु आँख बचाकर चूहे इन ढोलों में भी घुसने लगे । इस समस्‍या पर कई मित्रों से परामर्श किया गया । आखिर यह फैसला हुआ कि घर मंे एक बिल्‍ली पाली जाए । इस प्रस्‍ताव पर किसी को आपत्‍ति न थी ।

चुनाँचे एक बिल्‍ली लाई गई । उसकी खूब खातिर होने लगी । कभी बच्चे दूध पिलाते, कभी रोटी देते । उसने विधिपूर्वक चूहों का सफाया शुरू कर दिया । देखते-ही-देखते चूहे घर से गायब हो गए । सब लोग बड़े खुश हुए । बिल्‍ली प्रायः सब लोगों की थाली से जूठन ही खाती इसलिए हमें इसका कोई खर्च भी नहीं पड़ा । दो महीने बाद वह समय आ गया जब हम चूहों को तो भूल गए और बिल्‍ली से तंग आ गए । हमने सोचा चूहे तो खाली अनाज ही खाते थे, कम-से-कम परेशान तो नहीं करते थे । यह बिल्‍ली खाने में भी कम नहीं और हमें तंग भी करती रहती है । उसके प्रति हमारा व्यवहार बदल गया ।

 बिल्‍ली भी कम समझदार जानवर नहीं । जो शेर के काबू में नहीं आई वह हमसे कैसे मात खा जाती । उसने भी अपना रवैया बदल दिया । हमारे आगे-पीछे फिरने की बजाय वह रसोई के आसपास कोने में दुबककर बैठ जाती । जब मौका लगता, मजे से जो जी में आता खाती । इस तरह चोरी करते बिल्‍ली कई बार पकड़ी गई । एक दिन सुबह उठते ही मैं रसोई में कुछ लेने गया । देखता हूँकि कढ़े हुए दूध का दही जो रात को बड़े चाव से जमाया गया था, बिल्‍ली खूब मजे से खा रही है।

 अब चिंता हुई कि बिल्‍ली से कैसे पीछा छुड़ाया जाए । मेरा नौकर बहुत होशियार है । रात को काम खत्‍म करके जाने से पहले उसने एक खाली बोरी के अंदर दो रोटियाँ डाल दीं और चुपके से एक तरफ खड़ा होकर बिल्‍ली का इंतजार करने लगा । बिल्‍ली आई । वह एकदम रोटियाें पर झपटी । नौकर ने तुरंत बोरी का एक सिरा पकड़कर उसे ऊपर से बंद कर दिया । रस्‍सी के साथ बोरी का मुँह बाँध दिया गया । चूँकि अब रात के दस बजे थे, मैंने अपने नौकर अमरू से कहा कि ‘‘सबेरे बिल्‍ली को कहीं दूर छोड़ आए जिससे वह इस घर में वापस न आ सके ।’’

 सब लोगों को चाय पिलाते-पिलाते अमरू को अगले दिन आठ बज गए । मैंने याद दिलाया कि उसे बिल्‍ली को भूली भटियारिन की तरफ छोड़कर आना है । बोरी कंधे पर लटका अमरू चल दिया । बात आई गई हो गई। मैं हजामत और स्‍नान आदि में व्यस्‍त हो गया क्‍योंकि साढ़े नौ बजे दफ्तर जाना था । गुसलखाने में मुझे जोर का शोर सुनाई दिया । मैं नहाने में व्यस्‍त था और कुछ गुनगुना रहा था इसलिए मेरा ध्यान उधर नहीं गया । दो मिनट के बाद ही फिर शोर हुआ । इस बार मैंने सुना कि मेरे घर के सामने कोई आवाज लगा रहा हैः ‘अापका नौकर पकड़ लिया गया है । अगर आप उसे छुड़ाना चाहते हैं तो छप्परवाले कुएँ पर पहुँचिए ।’

मैं हैरान हुआ कि क्‍या बात है । समझा शायद अमरू किसी की साइकिल से टकरा गया होगा । शायद साइकिलवाले का कुछ नुकसान हो गया हो और उसने अमरू को धर-पकड़ा हो । रही आदमी इकट्ठे होने की बात, यह काम दिल्‍ली में मुश्किल नहीं और फिर करौल बाग में तो बहुत आसान है जहाँ सैकड़ों आदमियों को पता ही नहीं कि वे किधर जाएँ और क्‍या करें । खैर, उधर जा ही रहा था कि रास्‍ते में खाली बोरी लटकाए अमरू आता हुआ दिखाई दिया । वह खूब खिलखिलाकर हँस रहा था । उसे डाँटते हुए मैंने पूछा- ‘‘अरे क्‍या बात हुई ? तूने आज सुबह-ही-सुबह क्‍या गड़बड़ की जो इतना शोर मचा और मुहल्‍ले के लोग तुझे मारने को दौड़े ?’’

अमरू को कुछ कहना नहीं पड़ा । उसके पीछे कुछ आदमी आ रहे थे, उन्होंने मुझे सारा मामला समझा दिया । बात यह हुई कि जैसे अमरू कंधे पर बोरी लटकाए बिल्‍ली को बाहर छोड़ने जा रहा था; कुछ लोगों को शक हुआ कि बोरी में बच्चा है । दो आदमी चुपके-चुपके उसके पीछे हो लिए । उन्होंने देखा कि बोरी अंदर से हिल रही है । बस, उन्हंे विश्वास हाे गया कि इस बदमाश ने किसी बच्चे को पकड़ा है । अमरू स्‍वभाव से अल्‍पभाषी है, कुछ मसखरा भी है । वह चुप रहा । देखते-देखते पचासों आदमी इकट्ठे हो गए । उनमें से एक चिल्‍लाकर कहने लगा, ‘‘घेर लो इस आदमी काे, यह बदमाश उसी गिरोह में से है जिसका काम बच्चे पकड़ना है ।’’ उस जगह से पुलिस थाना भी बहुत दूर नहीं था । एक आदमी लपककर थाने गया और वहाँ से थानेदार और एक सिपाही को बुला लाया । थानेदार को देखते ही एक उत्‍साही दर्शक अपने कुर्ते की बाँहे ऊपर चढ़ाते हुए बोला, ‘‘दरोगा जी, ऐसा नहीं हो सकता कि आप इस बदमाश को चुपचाप यहाँ से ले जाएँ और कानूनी कार्यवाही की आड़ में इसे हवालात के मजे लेने दें । पहले इसकी जी भर के मरम्‍मत होगी । गजब नहीं है कि भरे मुहल्‍ले से बच्चे उठा लिए जाएँ ? दो दिन हुए पासवाली गली से एक बच्चा गुम हो गया । देवनगर से तो कई उठाए जा चुके हैं । आप बाद में इसके साथ चाहे जो करें पहले हम लोग इसकी पिटाई करेंगे ।’’ भीड़ में से दसियों ने इस सुंदर प्रस्‍ताव का समर्थन किया और लोग अमरू को पीटने के लिए मानो तैयार होने लगे ।

 उन दिनों दिल्‍ली में बड़ी सनसनी फैली हुई थी । नगर के सभी भागों से बच्चों के उठाए जाने की खबरें आ रही थीं । एक-दो बार पत्रों में यह छपा कि जमुना के पुल पर कुछ आदमी पकड़े गए जिन्होंने बोरियों में बच्चे बंद किए हुए थे । स्‍कूलोें से बच्चे बहुत सावधानी से लाए जाते थे । पार्कों में और बाहर गलियों में बच्चों का खेलना-कूदना बंद हो चुका था । दिल्‍ली नगरपालिका और संसद में इसी विषय पर अनेक सवाल-जवाब हो चुके थे इसलिए इस मामले में राजधानी के सभी नागरिकों की दिलचस्‍पी थी । आश्चर्य इस बात का नहीं कि लोगों ने अमरू पर संदेह क्‍यों किया, बल्‍कि इस बात का था कि उन्होंने अभी तक उसकी मार-पिटाई शुरू क्‍यों नहीं कर दी । वातावरण में सनसनी और तनाव की कमी न थी ।

 अगर थानेदार और पुलिस का सिपाही वहाँ न होते तो अबतक अमरू पर भीड़ टूट पड़ी होती । थानेदार ने आते ही अमरू की कलाई पकड़ ली और पूछा, ‘‘बोल, यह बच्चा तूने कहाँ से उठाया है और इसे तू कहाँ ले जा रहा है ? बता कहाँ हैं तेरे और साथी ? आज सबका सुराग लगाकर ही हटूँगा ।’’ अमरू अब तक तो दिल में हँस रहा था मगर थानेदार की धमकियों से कुछ घबरा गया । दबी आवाज में वह थानेदार से बोला- ‘‘सरकार, मैंने किसी का बच्चा नहीं उठाया । न मैं बदमाश हूँ । मैं तो एक भले घर का नौकर हूॅं । रोटी-चौका करता हूँ और अपना पेट पालता हूँ ।’’

 जो आदमी थानेदार को बुलाकर लाया था, क्रोध में आकर बाेला, ‘‘क्‍यों बकता है, बे ! दरोगा जी, ऐसे नहीं यह मानेगा । दो-चार बेंत रसीद कीजिए ।’’ दरोगा ने बगल से निकाल कर बेंत अपने हाथ में ली ही थी कि अमरू नम्रतापूर्वक झुका और बोला, ‘‘सरकार, आप जितना चाहें मुझे पीट लें, पहले यह तो देख लें कि इस बोरी में है क्‍या ? हुक्‍म हो तो चलिए थाने चलें ।’’ यद्‌यपि थानेदार इस बात पर राजी हो गए थे पर भीड़ कब मानने वाली थी । लोग चिल्‍ला उठे, ‘‘हरगिज नहीं, ऐसा कभी नहीं होगा । हम सब इस आदमी की बदमाशी के गवाह हैं । मामला कभी दबने नहीं देंगे ।’’ थानेदार डर गए कि उनकी नीयत पर लोगों को शक हो रहा है उन्होंने अमरू से कहा, ‘‘अच्छा, बोरी को नीचे रखो । इसका मुँह खोलो।’’

अमरू शांतिपूर्वक नीचे बैठ गया और धीरे से उसने बोरी का मुँह खोल दिया । जैसे ही बोरी का मुँह खुला बिल्‍ली का बिलंुगड़ा छलाँगें मारता हुआ एक तरफ भाग गया और लोग देखते ही रह गए । थानेदार की भी समझ में न आया कि अब क्‍या करें ? वह थाने की तरफ मुड़ा और एक तांॅगेवाले की पीठ पर बेंत मारते हुए बोला, ‘‘जानते नहीं कि रास्‍ते में तांॅगा खड़ा नहीं करना चाहिए ।’’ इस प्रकार अपनी झेंप मिटाने का यत्‍न करते हुए दरोगा जी चले गए और अमरू हँसता हुआ घर वापस आ गया ।