एक दिन फ्रेड्रिक, हितेंद्र, मुख्तार, प्राजक्ता, सिद्धि, शर्मिष्ठा, कृष्णा, बिट्टू, तृप्ति, चिन्मय सोनपरी के साथ बगीचे में खेल रहे थे । काव्या पेड़ के नीचे बैठी इन सबका खेल देख रही थी कि अचानक एक पत्ता ऊपर से आ गिरा । काव्या ने ऊपर देखा, हरा-भरा पेड़ और उसकी घनी छाया फैली थी । वह सोचने लगी ‘प्रकृति कितना कुछ देती है, हमें भी उसे कुछ देना चाहिए ।’ उसने सभी को बुलाया और अपने विचार बताए । सभी साेचने लगे-‘अरे, हॉं हमें भी कुछ देना चाहिए ।’ चिन्मय बाेला, ‘‘क्यों न बाल दिवस पर हम प्रकृति को कुछ दें,’’ सभी ने सोनपरी काे अपना विचार बताया ।
सोनपरी को बहुत हर्ष हुआ । वह सबको अपने साथ लेकर आकाश में उड़ चली । उसने कहा, ‘‘नेकी और पूछ-पूछ, ‘दोस्तो ! तुम जो कुछ प्रकृति को देना चाहते हो, उसकी कल्पना करो । मैं तुम्हारी हर कल्पना को संुदर उपहार में बदल दूँगी ।’’ फ्रेड्रिक और सिद्धि ने अपने खिलौने आकाश को देने का मन बनाए। सोचते ही खिलौनों ने बादलों का रूप लिया और पानी बरसने लगा। काव्या और हितेंद्र ने पर्वत को मिठाई देने की इच्छा व्यक्त की । यह इच्छा शानदार वृक्षों में बदल गई । शर्मिष्ठा एवं कृष्णा पृथ्वी को अपनी गुड़िया देना चाहती थीं। देखते-देखते उनकी चाह नदियॉं बनकर पृथ्वी पर बहने लगी ।
सोनपरी को बहुत हर्ष हुआ । वह सबको अपने साथ लेकर आकाश में उड़ चली । उसने कहा, ‘‘नेकी और पूछ-पूछ, ‘दोस्तो ! तुम जो कुछ प्रकृति को देना चाहते हो, उसकी कल्पना करो । मैं तुम्हारी हर कल्पना को संुदर उपहार में बदल दूँगी ।’’ फ्रेड्रिक और सिद्धि ने अपने खिलौने आकाश को देने का मन बनाए। सोचते ही खिलौनों ने बादलों का रूप लिया और पानी बरसने लगा। काव्या और हितेंद्र ने पर्वत को मिठाई देने की इच्छा व्यक्त की । यह इच्छा शानदार वृक्षों में बदल गई । शर्मिष्ठा एवं कृष्णा पृथ्वी को अपनी गुड़िया देना चाहती थीं। देखते-देखते उनकी चाह नदियॉं बनकर पृथ्वी पर बहने लगी ।
पवन बहने लगा । फूलों ने हवा में मीठी खुशबू भर दी । बच्चेखुशी से नाचने लगे और परी को धन्यवाद देने लगे कि परी ने सचमुच प्रकृति को अद्भुत बना दिया । तभी प्राजक्ता के सिर पर एक पका आम आ टपका । एकाएक प्राजक्ता की नींद खुल गई । उसने खिड़की से बाहर झॉंका तो पाया कि प्रकृति ठीक वैसी ही दिख रही है, जैसी उसने अभी-अभी सपने में देखी थी। वह भावविभोर हो गई ।