३. आत्मनिर्भरता

यह बात तो निश्चित है कि जो मनुष्य मर्यादापूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहता है, उसके लिए वह गुण अनिवार्यहै जिससे आत्मनिर्भरता आती है और जिससे अपने पैरों के बल खड़ा होना आता है । युवा को यह सदा स्‍मरण रखना चाहिए कि उसकी आकांक्षाएँ उसकी योग्यता से कई गुना बढ़ी हुई हैं । उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने से बड़ों का सम्मान करे, छोटों और बराबरवालों से कोमलता का व्यवहार करे । ये बातें आत्ममर्यादा के लिए आवश्यक हैं ।

अब तुम्हें क्या करना चाहिए, इसका ठीक-ठीक उत्तर तुम्हीं को देना होगा, दूसरा कोई नहीं दे सकता । कैसा भी विश्वासपात्र मित्र हो, तुम्हारे किसी काम को वह अपने ऊपर नहीं ले सकता । हम अनुभवी लोगों की बातों को आदर के साथ सुनें, बुद्‌धिमानों की सलाह को कृतज्ञतापूर्वक मानें पर इस बात को निश्चित समझकर कि हमारे कामों से ही हमारी रक्षा व हमारा पतन होगा । हमें अपने विचार और निर्णय की स्वतंत्रता को दृढ़तापूर्वक बनाए रखना चाहिए । जिस पुरुष की दृष्टि सदा नीची रहती है, उसका सिर कभी ऊपर नहीं होगा । नीची दृष्टि रखने से यद्‍यपि रास्ते पर रहेंगे पर इस बात को न देखेंगे कि यह रास्ता कहाँ ले जाता है ।

अपने व्यवहार में कोमल रहो और अपने उद्‍देश्यों को उच्च रखो, इस प्रकार नम्र और उच्चाशय दोनों बनो । अपने मन को कभी मरा हुआ न रखो । जितना ही जो मनुष्य अपना लक्ष्य ऊपर रखता है, उतना ही उसका तीर ऊपर जाता है । संसार में ऐसे-ऐसे दृढ़चित्त मनुष्य हो गए हैं जिन्होंने मरते दम तक सत्य की टेक नहीं छोड़ी, अपनी आत्मा के विरुद्‌ध कोई काम नहीं किया । राजा हरिश्चंद्र पर इतनी-इतनी विपत्तियाँ आईं, पर उन्होंने अपना सत्य नहीं छोड़ा । उनकी प्रतिज्ञा यही रही –

‘चाँद टरै, सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार ।
पै दृढ़ श्रीहरिश्चंद्र को, टरै न सत्य विचार ।।’

महाराणा प्रताप जंगल-जंगल मारे-मारे िफरते थे, अपनी पत्‍नी और बच्चों को भूख से तड़पते देखते थे परंतु उन्होंने उन लोगों की बात न मानी जिन्होंने उन्हें अधीनतापूर्वक जीते रहने की सम्मति दी क्योंकि वे जानते थे कि अपनी मर्यादा की चिंता जितनी अपने कोहो सकती है, उतनी दूसरे को नहीं ।

मैं निश्चयपूर्वक कहता हँू कि जो युवा पुरुष सब बातों में दूसरों का सहारा चाहते हैं, जो सदा एक-न-एक नया अगुआ ढँूढ़ा करते हैं और उनके अनुयायी बना करते हैं, वे आत्मसंस्कार के कार्य में उन्नति नहीं कर सकते । उन्हें स्वयं विचार करना, अपनी सम्मति आप स्थिर करना, दूसरों की उचित बातों का मूल्य समझते हुए भी उनका अंधभक्त न होना सीखना चाहिए । तुलसीदास जी को लोक में जो इतनी सर्वप्रियता और कीर्ति प्राप्त हुई, उनका दीर्घ जीवन जो इतना महत्त्वमय और शांतिमय रहा, सब इसी मानसिक स्वतंत्रता, निर्द्‌वंद्वता और आत्मनिर्भरता के कारण ।

एक इतिहासकार कहता है-‘प्रत्येक मनुष्य का भाग्य उसके हाथ में है । प्रत्येक मनुष्य अपना जीवन निर्वाह श्रेष्ठ रीति से कर सकता है। यही मैंने किया है, इसे चाहे स्वतंत्रता कहो, चाहे आत्मनिर्भरता कहो, चाहे स्वावलंबन कहो जो कुछ कहो, यह वही भाव है जिसकी प्रेरणा से राम[1]लक्ष्मण ने घर से निकल बड़े-बड़े पराक्रमी वीरों पर विजय प्राप्त की । यह वही भाव है जिसकी प्रेरणा से हनुमान जी ने अकेले सीता जी की खोज की । यह वही भाव है जिसकी प्रेरणा से कोलंबस ने अमरीका महाद्‍वीप ढँूढ़ निकाला ।

इसी चित्तवृत्ति की दृढ़ता के सहारे दरिद्र लोग दरिद्रता और अपढ़ लोग अज्ञता से निकलकर उन्नत हुए हैं तथा उद्‍योगी और अध्यवसायी लोगों ने अपनी समृद्‌धि का मार्ग निकाला है । इसी चित्तवृत्ति के आलंबन से पुरुष सिंहों में यह कहने की क्षमता आई हुई है, ‘मैं राह ढँूढूँगा या राह निकालूँगा ।’ यही चित्तवृत्ति थी जिसकी उत्तेजना से शिवाजी महाराज ने थोड़े वीर मराठा सिपाहियों को लेकर औरंगजेब की बड़ी भारी सेना पर छापा मारा और उसे तितर-बितर कर दिया । यही चित्तवृत्ति थी जिसके सहारे एकलव्य बिना किसी गुरु या संगी-साथी के जंगल के बीच निशाने पर तीर पर तीर चलाता रहा और अंत में एक बड़ा धनुर्धर हुआ । यही चित्तवृत्ति है जो मनुष्य को सामान्य जनों से उच्च बनाती है, उसके जीवन को सार्थक और उद्‍देश्यपूर्ण करती है तथा उसे उत्तम संस्कारों को ग्रहण करने योग्य बनाती है । जिस मनुष्य की बुद्‌धि और चतुराई उसके हृदय के आश्रय पर स्थित रहती है, वह जीवन और कर्मक्षेत्र में स्वयं भी श्रेष्ठ और उत्तम रहता है और दूसरांे को भी श्रेष्ठ और उत्तम बनाता है ।