हिंदी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ । महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वंद्वी जानता है, तुलसीदास परंतु तुलसीदास और कबीर के व्यक्तित्व में बड़ा अंतर था । यद्यपि दोनों ही भक्त थे परंतु दोनों स्वभाव, संस्कार और दृष्टिकोण में एकदम भिन्न थे । मस्ती, फक्कड़ानास्वभाव और सब कुछ ही झाड़-फटकारकर चल देने वाले तेज ने कबीर को हिंदी साहित्य का अद्वितीय व्यक्ति बना दिया है । उनकी वाणी में सब कुछ को पाकर उनका सर्वजयी व्यक्तित्व विराजता रहता है । उसी ने कबीर की वाणी में अनन्यसाधारण जीवनरस भर दिया है । कबीर की वाणी का अनुकरण नहीं हो सकता । अनुकरण करने की सभी चेष्टाएँ व्यर्थसिद्ध हुई हैं ।
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कबीरदास की वाणी वह लता है जो योग के क्षेत्र में भक्ति का बीज पड़ने से अंकुरित हुई थी । उन दिनों उत्तर के हठयोगियों और दक्षिण के भक्तों में मौलिक अंतर था । एक टूट जाता था पर झुकता न था, दूसरा झुक जाता थापर टूटतान था । एक के लिए समाज की ऊँच-नीच भावना मजाक और आक्रमण का विषय था, दूसरे के लिए मर्यादा और स्फूर्तिका । .. संसार में भटकते हुए जीवों को देखकर करुणा के अश्रु से वे कातर नहीं हो आते थे बल्कि और भी कठोर होकर उसे फटकार बताते थे । वे सर्वजगत के पाप को अपने ऊपर ले लेने की वांछा से ही विचलित नहीं हो पड़ते थे बल्कि और भी कठोर और भी शुष्क होकर सुरत और विरत का उपदेश देते थे । संसार मंे भरमने वालों पर दया कैसी, मुक्ति के मार्गमंे अग्रसर होने वालों को आराम कहाँ, करम की रेख पर मेख न मार सका तो संत कैसा ?
ज्ञान का गेंद कर सुर्त का डंड कर
खेल चौगान-मैदान माँही ।
जगत का भरमना छोड़ दे बालके
आय जा भेष-भगवंत पाहीं ।।
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अक्खड़ता कबीरदास का सर्वप्रधान गुण नहीं हैं । जब वे अवधूत या योगी को संबोधन करते हैं तभी उनकी अक्खड़ता पूरे चढ़ाव पर होती है । वे योग के बिकट रूपों का अवतरण करते हैं गगन और पवन की पहेली बुझाते रहते हैं, सुन्न और सहज का रहस्य पूछते रहते हैं, द्वैत और अद्वैत के सत्त्व की चर्चा करते रहते हैं-
अवधू, अच्छरहूँ सों न्यारा ।
जो तुम पवना गगन चढ़ाओ, गुफा में बासा ।
गगना-पवना दाेनों बिनसैं, कहँ गया जोग तुम्हारा ।।
गगना-मद्धे जोती झलके, पानी मद्धे तारा ।
घटिगे नींर विनसिने तारा, निकरि गयौ केहि द्वारा ।
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परंतु वे स्वभाव से फक्कड़ थे । अच्छा हो या बुरा, खरा हो या खोटा, जिससे एक बार चिपट गए उससे जिंदगी भर चिपटे रहो, यह सिद्धांत उन्हेें मान्य नहीं था । वे सत्य के जिज्ञासु थे और कोई माेह-ममता उन्हें अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकती थी । वे अपना घर जलाकर हाथ में मुराड़ा लेकर निकल पड़ेथे और उसी को साथी बनाने को तैयार थे जो उनके हाथों अपना भी घर जलवा सके
– हम घर जारा अपना, लिया मुराड़ा हाथ ।
अब घर जारों तासु का, जो चलै हमारे साथ ।
वे सिर से पैर तक मस्त-मौला थे । मस्त-जो पुराने कृत्यों का हिसाब नहीं रखता, वर्तमान कर्मों को सर्वस्व नहीं समझता और भविष्य में सब-कुछ झाड़[1]फटकार निकल जाता है । जो दुनियादार किए-कराए का लेखा-जोखा दुरुस्त रखता है वह मस्त नहीं हो सकता । जो अतीत का चिट्ठा खोले रहता है वह भविष्य का क्रांतदर्शी नहीं बन सकता । जो मतवाला है वह दुनिया के माप-जोख से अपनी सफलता का हिसाब नहीं करता । कबीर जैसे फक्कड़ को दुनिया की होशियारी से क्या वास्ता ? ये प्रेम के मतवाले थे मगर अपने को उन दीवानों में नहीं गिनते थे जो माशूक के लिए सर पर कफन बाँधे फिरते हैं । …….
हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ।
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ।
जो बिछुड़ै हैं पियारे से, भटकते दर-बदर फिरते ।
हमारा यार है हम मंे, हमन को इंतजारी क्या ।
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इसीलिए ये फक्कड़राम किसी के धोखे में आने वाले न थे । दिल जम गया तो ठीक है और न जमा तो राम-राम करके आगे चल दिए । योग-प्रक्रिया को उन्होंने डटकर अनुभव किया, पर जँची नहीं ।
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उन्हें यह परवाह न थी कि लोग उनकी असफलता पर क्या-क्या टिप्पणी करेंगे । उन्होंने बिना लाग-लपेट के, बिना झिझक और संकोच के एेलान किया-
आसमान का आसरा छोड़ प्यारे,
उलटि देख घट अपन जी ।
तुम आप में आप तहकीक करो,
तुम छोड़ो मन की कल्पना जी ।
आसमान अर्थात गगन-चंद्र की परम ज्योति । जो वस्तु केवल शारीरिक व्यायाम और मानसिक शम-दमादि का साध्य है वह चरम सत्य नहीं हो सकती। …… केवल शारीरिक और मानसिक कवायद से दीखने वाली ज्योति जड़ चित्त की कल्पना-मात्र है । वह भी बाह्य है । कबीर ने कहा, और आगे चलो । केवल क्रिया बाह्य है, ज्ञान चाहिए । बिना ज्ञान के योग व्यर्थ है ।
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कबीर की यह घर-फूँक मस्ती, फक्कड़ना, लापरवाही और निर्मम अक्खड़ता उनके अखंड आत्मविश्वास का परिणाम थी । उन्होंने कभी अपने ज्ञान को, अपने गुरु को और अपनी साधना को संदेह की नजरों से नहीं देखा । अपने प्रति उनका विश्वास कहीं भी डिगा नहीं । कभी गलती महसूस हुई तो उन्होंने एक क्षण के लिए भी नहीं सोचा कि इस गलती के कारण वे स्वयं हो सकते हैं । उनके मत से गलती बराबर प्रक्रिया में होती थी, मार्ग में होती थी, साधन में होती थी ।
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वे वीर साधक थे और वीरता अखंड आत्म-विश्वास को आश्रय करके ही पनपती है । कबीर के लिए साधना एक विकट संग्राम स्थली थी, जहाँ कोई विरला शूर ही टिक सकता था ।
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कबीर जिस साईं की साधना करते थे वह मुफ्त की बातों से नहीं मिलता था । उस राम से सिर देकर ही सौदा किया जा सकता था-
साई सेंत न पाइए, बाताँ मिलै न कोय ।
कबीर साैदा राम सौं, सिर बिन कदै न होय ।।
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यह प्रेम किसी खेत में नहीं उपजता, किसी हाट में नहीं बिकता फिर भी जो कोई भी इसे चाहेगा, पा लेगा । वह राजा हो या प्रजा, उसे सिर्फ एक शर्त माननी होगी, वह शर्त है सिर उतारकर धरती पर रख ले । जिसमें साहस नहीं, जिसमें इस अखंड प्रेम के ऊपर विश्वास नहीं, उस कायर की यहाँ दाल नहीं गलेगी । हरि से मिल जाने पर साहस दिखाने की बात करना बेकार है, पहले हिम्मत करो, भगवान आगे आकर मिलेंगे ।
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विश्वास ही इस प्रेम की कुंजी है;-विश्वास जिसमें संकोच नहीं, द्विधा नहीं, बाधा नहीं ।
प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा-परजा जिस रुचे, सिर दे सो ले जाय ।।
सूरै सीस उतारिया, छाड़ी तन की आस ।
आगेथैं हरि मुलकिया, आवत देख्या दास ।।
भक्ति के अतिरेक में उन्होंने कभी अपने को पतित नहीं समझा क्योंकि उनके दैन्य में भी उनका आत्म-विश्वास साथ नहीं छोड़ देता था । उनका मन जिस प्रेमरूपी मदिरा से मतवाला बना हुआ था वह ज्ञान के गुण से तैयार की गई थी ।
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युगावतारी शक्ति आैर विश्वास लेकर वे पैदा हुए थे और युगप्रवर्तक की दृढ़ता उनमें वर्तमान थी इसीलिए वे युग प्रवर्तन कर सके । एक वाक्य में उनके व्यक्तित्व को कहा जा सकता हैः वे सिर से पैर तक मस्त-मौला थे- बेपरवाह, दृढ़, उग्र, कुसुमादपि कोमल, वज्रादपि कठोर ।