बचपन से ही रेलवे स्टेशन पर जाना मुझे अच्छा लगता है । बात सन १९३5 की है । मैं शाम के समय टहलने के लिए प्रयाग स्टेशन पर चला गया। तभी मंैने देखा कि तीसरे दर्जे के डिब्बे से एक सज्जन उतर रहे हैं और अपना बिस्तर स्वयं अपनी बगल में दबाए प्लेटफार्म पर आगे बढ़ रहे हैं । पास आने पर देखा कि वृद्ध सज्जन और कोई नहीं, हिंदी के प्रसिद्ध कहानी और उपन्यास लेखक प्रेमचंद जी हैं । मैं आगे बढ़कर बोल उठा; ‘‘बाबू जी ! आप ?’’ उन्होंने जोर से ठहाका लगाया और कहा, ‘‘हाँ, मैं ।’’ उनके अट्टहास से सारा स्टेशन गूँज उठा । मैंने पूछा- ‘‘कहाँ जाइएगा ?’’ उत्तर दिया-‘‘जहाँ तुम कहो ।’’ मैंने कहा-‘‘मेरे घर चलिए ।’’ उन्होंने उत्तर दिया-‘‘चलो’’ और बिना किसी तकल्लुफ के वे मेरे साथ पैदल मेरे घर चले आए । इतने बड़े साहित्यकार, वे इतने सरल और सौम्य हैं कि अपने जीवन की सुविधा के लिए कोई भी उपकरण जुटाना नहीं चाहते । उनका अट्टहास इतना आकाशव्यापी है कि वातावरण का सारा विषाद उसमें धुल जाता है ।
वे हिंदुस्तानी एकेडेमी के वार्षिक अधिवेशन में भाग लेने के लिए प्रयाग आए हुए थे । ग्यारह बजे दिन से तीन बजे तक वे उसमें सम्मिलित होते थे किंतु प्रातःकाल से ही उनसे भेंट करने वालों का क्रम अारंभ हो जाता था जो ग्यारह बजे रात तक चलता रहता था । जब वे बोलने के लिए खड़े होते तो पहले वे एक कहकहा लगाते जिससे श्रोतागण उन्हें सुनने के लिए और भी उत्सुक हो उठते थे । फिर कहते-‘‘आपसे कहूँ भी तो क्या कहूँ और कहूँ तो यह कहूँकि आप आँखों से काम लीजिए, कानों से नहीं । आप मुझे देखिए और पढ़िए-सुनिए मत । सुनना गलत है, देखना सही है । मेरी जिंदगी तो सपाट मैदान है । उसमें कितने खंदक हैं, गड्ढे हैं, कितने काँटे, कितनी झाड़ियाँ हैं, आप सोच भी नहीं सकते। लेकिन उसी पर चलकर आप लोगों के पास आया हूँ । पिता ने मेरा नाम धनपत राय रखा लेकिन धन से कभी वास्ता नहीं रहा । पढ़ते समय एक वकील साहब के लड़कों को पढ़ाता था, पाँच रुपये मासिक मिल जाता था । दो-रुपयों में अपना गुजारा करता था, तीन रुपये घर भेज देता था। उसी समय मैंने ‘तिलिस्म होशरुबा’ और ‘फिसाना आजाद’ पढ़ा था । कुछ होश आया तो उर्दू में लिखना शुरू किया फिर आप लोगों ने हिंदी में बुला लिया ।’’
जब तक प्रेमचंद जी मेरे घर रहे, मुझे मुश्किल से घंटे-आध-घंट
का समय मिलता, जब मैं उनके साथ चाय पीता था अन्यथा उनका समय अन्य व्यक्ति अधिकतर उनकी अनिच्छा से अपने अधिकार में कर लेते। एक दिन मैं अपनी कविताओं का क्रम व्यवस्थित कर उनकी प्रेस काॅपी तैयार कर रहा था । वे आए । पूछा-‘‘क्या कर रहे हो ?’’ मैंने कहा-मैं अपनी कविताओं का संग्रह प्रकाशित कराने के लिए ठीक कर रहा हूॅं । उन्होंने कहा-‘‘छपने के लिए कहाँ भेज रहे हो ?’’ मैंने कहा-‘‘साहित्य भवन, प्रयाग ही इसे प्रकाशित करने का आग्रह कर रहा है।’’ उन्होंने कहा-‘‘गलत । इसे मैं प्रकाशित करूँगा ।’’ ऐसा कहकर उन्होंने मेरा काव्य संग्रह अपने बैग में रख लिया ।
वह संग्रह ‘रूपराशि’ के नाम से उनके सरस्वती प्रेस बनारस से प्रकाशित हुआ । जिस दिन वे जाने वाले थे, उस दिन मेरी पत्नी ने उनके लिए खीर तैयार की । किंतु रात ग्यारह बजे तक प्रतीक्षा करने पर भी उनके दर्शन नहीं हुए । लाचार होकर पत्नी ने उनके कमरे में भोेजन की थाली रख दी और उसमें खीर का कटोरा भी सँभालकर रख दिया । सोचा-‘जब प्रेमचंद जी आएँगे, भोजन करेंगे ।’ सुबह उठकर देखा कि प्रेमचंद जी अपना सामान लेकर चले गए हैं । टेबल पर एक परचा लिखकर छोड़ दिया है। वह परचा इस प्रकार थाः-
‘प्यारे रामकुमार !
निहायत अफसोस है कि मैं दिन भर से गायब रहा। मेरे वक्त पर न आने से तुम्हें और बहूरानी को बेहद तकलीफ हुई होगी। लाचार था। रात दो बजे लौटकर आया, तुम लोग सो गए थे । जगाना ठीक नहीं समझा । देखा, कमरे में बहूरानी ने खाने की थाली परोसकर रख दी है । बढ़िया खीर भी थी लेकिन इलाहाबाद की गरमी में सुबह की बनी हुई खीर का दूध फट गया था । एक जगह खाना खा चुका था लेकिन खीर तो मैंने खा ही ली । इस डर से कि फटे हुए दूध की खीर छोड़ देने से कहीं बहूरानी का दिल मेरी ओर से फट न जाए। खैर, उनको बहुत-बहुत आशीर्वाद । वे खुश रहें । फौरन जा रहा हूँ । चार बजे की गाड़ी पकड़नी है । भई, बुरा मत मानना । बगैर मिले जा रहा हूँ ।
तुम्हारा,
धनपत राय
और इस तरहविश्वविख्यात कहानीकार और उपन्यासकार प्रेमचंद जी उस रात मेरे घर से चले गए ।