कितनी सुंदरता बिखरी
प्राकृतिक जगत में, ईश्वर,
टपक रही गिरि-शिखरों से झर,
लोट रही घाटी में
लिपटी धूप छाँह में निःस्वर !
अनिल स्पर्श से पुलकित तृण दल,
बहती सीमाहीन
श्लक्ष्ण संगीत स्रोत-सी
अहरह वन-भू मर्मर !
फूलों की ज्वालाएँ
आँखें करतीं शीतल,
मुकुल अधर मधु पीते
गुंजन भर मधुकर दल !
तितली उड़तीं,
दूर, कहीं पल्लव छाया में
रुक-रुक गाती वन प्रिय कोयल !
´ ´ ´
लेटी नीली छायाएँ
कृश रवि किरणों में गुंफित,
दुरारोह भातीं ढालें,
निश्चल तरंग-सी स्तंभित !
स्वर्ण-भाल गिरी सर्वप्रथम
करती ऊषा अभिनंदन,
साँझ यहीं सोती छिप,
निर्जन में कर संध्यावंदन !
अपलक तारापथ शशिमुख का
बनता लेखा दर्पण,
यहीं शैल कंधों पर सोया
जगता गंध समीरण !
सद्यः स्फुट सौंदर्य राशि
सम्मोहन भरती मन में,
कितना विस्मयकर वैचित्र्य
भरा पर्वत जीवन में !
खग चखते फल,
कुतर रहीं गिलहरियाँ कोंपल,
वन-पशु सब लगते प्रसन्न
परिचित मरकत आँगन में !
स्वाभाविक,
यदि मुझे याद आता
ईश्वर इस क्षण में !
जड़ जग इतना सुंदर जब
चेतन जग में क्या कारण
रहता अहरह जो
विषण्ण जीवन मन का संघर्षण ?
मनुज प्रकृति का करना फिर
नव विश्लेषण, संश्लेषण,
– ईश्वर का प्रतिनिधि नर,
अभिशापित हो उसका जीवन ?
लगता, अपनी क्षुद्र अहंता ही में
सीमित, केंद्रित,
छिन्न हो गया विश्व चेतना से
मानव मन निश्चित !