६. निसर्ग वैभव

कितनी सुंदरता बिखरी

 प्राकृतिक जगत में, ईश्वर,

 टपक रही गिरि-शिखरों से झर,

 लोट रही घाटी में

 लिपटी धूप छाँह में निःस्वर !

 अनिल स्पर्श से पुलकित तृण दल,

 बहती सीमाहीन

 श्लक्ष्ण संगीत स्रोत-सी

 अहरह वन-भू मर्मर !

 फूलों की ज्वालाएँ

 आँखें करतीं शीतल,

 मुकुल अधर मधु पीते

 गुंजन भर मधुकर दल !

 तितली उड़तीं,

 दूर, कहीं पल्लव छाया में

 रुक-रुक गाती वन प्रिय कोयल !

 ´ ´ ´

लेटी नीली छायाएँ

 कृश रवि किरणों में गुंफित,

 दुरारोह भातीं ढालें,

 निश्चल तरंग-सी स्तंभित !

स्वर्ण-भाल गिरी सर्वप्रथम

 करती ऊषा अभिनंदन,

 साँझ यहीं सोती छिप,

 निर्जन में कर संध्यावंदन !

अपलक तारापथ शशिमुख का

 बनता लेखा दर्पण,

 यहीं शैल कंधों पर सोया

 जगता गंध समीरण !

 सद्‌यः स्फुट सौंदर्य राशि

सम्मोहन भरती मन में,

 कितना विस्मयकर वैचित्र्य

 भरा पर्वत जीवन में !

 खग चखते फल,

 कुतर रहीं गिलहरियाँ कोंपल,

 वन-पशु सब लगते प्रसन्न

 परिचित मरकत आँगन में !

 स्वाभाविक,

 यदि मुझे याद आता

 ईश्वर इस क्षण में !

 जड़ जग इतना सुंदर जब

 चेतन जग में क्या कारण

 रहता अहरह जो

 विषण्ण जीवन मन का संघर्षण ?

 मनुज प्रकृति का करना फिर

 नव विश्लेषण, संश्लेषण,

– ईश्वर का प्रतिनिधि नर,

 अभिशापित हो उसका जीवन ?

लगता, अपनी क्षुद्र अहंता ही में

 सीमित, केंद्रित,

 छिन्न हो गया विश्व चेतना से

 मानव मन निश्चित !