६. परिश्रम ही पूजा

परिश्रम ही पूजा है । पूजा तो पूजा ही होती है । पूजा परमात्मा की होती है । इष्टदेव की होती है । इस पर विचार अलग-अलग हो सकते हैं किंतु इसमें दो राय नहीं कि पूजा आलस्यमन नहीं होती । बड़े-बड़े कर्मयोगियों ने कर्मको पूजा माना है । चिंतन की भी राष्ट्रको आवश्यकता होती है परंतु वास्तव में परिश्रम की आवश्यकता इससे कहीं ज्यादा है । बचपन से ही परिश्रम करने का अभ्यास निस्संदेह आपको सफलता की राह पर ले जाता है । यदि आपको आलस्य की आदत पड़ गई तो समझ लीजिए कि आप पतन की ओर जा रहे हैं । दुखाें की मार से फिर आपको कोई बचा ही नहीं सकता । कहा गया है-‘आलस्यो हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः ।’

 सचमुच आलस्य शरीर में ही बसने वाला हमारा सबसे बड़ा शत्रुहै । संत कबीर केवल भक्त या संत ही नहीं थे, वे अपने हाथ से कपड़ा भी बुनते थे । वे परिश्रम को ही पूजा मानते थे । परिश्रम शारीरिक ही नहीं होता, मानसिक और बौद्‌धिक परिश्रम भी होते हैं । परिश्रमी में अात्मविश्वास होता है । उसे मालूम होता है कि परिश्रम का फल मीठा होता है । फल मिलने में देर हो सकती है परंतु परिश्रम निष्फल नहीं हो सकता ।

 एक बार एक विद्यालय का परीक्षा परिणाम घोषित किया जा रहा था । एक बालक ने खड़े होकर कहा कि उसका परिणाम घोषित नहीं हुआ । प्रधानाचार्य ने कहा-‘‘जिनके नाम नहीं बोले गए वे उत्तीर्णनहीं हैं।’’

बालक दृढ़तापूर्वक बोला- ‘‘गुरुदेव ! ऐसा नहीं हो सकता ।’’ प्रधानाचार्यने जोर देकर कहा-‘‘बैठ जाआे! तुम अनुत्तीर्ण हो ।’’ विद्यार्थी फिर भी नहीं बैठा तो प्रधानाचार्यने उसपर पॉंच रुपये जुर्माना लगा दिया । विद्यार्थी ने पुनः निवेदन किया तो जुर्माना दस रुपये कर दिया गया । विद्यार्थी फिर भी नहीं बैठा । कक्षाध्यापक ने भी कहा- ‘‘सर ! बालक ठीक कहता है, यह अनुत्तीर्णनहीं हो सकता । यह पढ़ाई में कठिन परिश्रम करता है । ’’

इतने में विद्यालय का बाबू दौड़ा-दौड़ा आया और क्षमा मॉंगते हुए बोला-‘‘सर, टाइप होने में एक नाम छूट गया था ।’’ वह नाम उसी परिश्रमी छात्र का था और उसके अंक भी सर्वाधिक थे । वह बालक और कोई नहीं बल्कि राजेंद्र प्रसाद थे, वही राजेंद्र प्रसाद जिन्होंने स्‍वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्‍सा लिया । आगे चलकर भारत के प्रथम राष्ट्रपति चुनेगए।

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 व्याकरण के आचार्य कैयट दिनभर आजीविका के लिए परिश्रम करते अौर रात्रि को जागकर व्याकरण लिखा करते । इससे उनका स्वास्थ्य गिरने लगा । उनकी पत्नीने आग्रह किया-‘‘आप समाज के लिए महत्त्वपूर्ण कार्यकर रहे हैं । घर का खर्चचलाने की चिंता आप मुझपर छोड़ दीजिए ।’’ परिश्रमी व्याकरणाचार्यअपनी पत्नी से बोले -‘‘तुम घर कैसे चलाओगी?’’ वह भी घोर परिश्रमी थी । ‘‘आश्रम की सीमा पर खड़े कुश की मैं रस्सियाँ बनाऊँगी । आप एक दिन जाकर साप्ताहिक बाजार में बेच आइएगा । घर का खर्चइसी से चल जाएगा । आप व्याकरण की रचना के लिए अधिक समय निकाल सकेंगे ।’’आचार्यकैयट ने पत्‍नी की बात स्‍वीकार की । वैयाकरण कैयट बोले-‘‘वाह! तुमने तो बता दिया कि परिश्रम ही पूजा है । श्रम से ही जीवन में सब साध्य होता है । अब ताे शीघ्र सफलता मिलेगी।’’ आगे चलकर उन्होंने अद्भुत व्याकरण की रचना की । यह पुस्‍तक आगे चलकर विद्यार्थियों के लिए पथ प्रदर्शक का काम करने लगी ।