७. खुला आकाश (पूरक पठन)

अंदर की दुनिया

मारे अंदर की दुनिया बाहर की दुनिया से कहीं ज्यादा बड़ी है । हम उसका विस्‍तार नहीं करते । बाहर की अपेक्षा उसे  छोटा करते चले जाते हैं और उसे बिलकुल निर्जीव कर लेते हैं । आजादी, पूरी आजादी, अगर कहीं संभव है तो इसी भीतरी दुनिया में ही, जिसे हम बिलकुल अपनी तरह समृद्ध बना सकते हैं- स्‍वार्थी अर्थों में सिर्फ अपने लिए ही नहीं, निःस्‍वार्थी अर्थों में दूसरों के लिए भी महत्‍त्‍व रखता है और स्‍वयं अपने लिए तो विशेष महत्‍त्‍व रखता ही है।

– १० मार्च १९९8

मकान पर मकान

जिस गली में आजकल रहता हूँ-वहाँ एक आसमान भी है लेकिन दिखाई नहीं देता । उस गली में पेड़ भी नहीं हैं, न ही पेड़ लगाने की गुंजाइश ही है । मकान ही मकान हैं । इतने मकान कि लगता है मकान पर मकान लदे हैं । लंद-फंद मकानों की एक बहुत बड़ी भीड़, जो एक संॅकरी गली में फँस गई और बाहर निकलने का कोई रास्‍ता नहीं है । जिस मकान में रहता हूँ, उसके बाहर झाँकने से ‘बाहर’ नहीं सिर्फ दूसरे मकान और एक गंदी व तंग गली दिखाई देती है । चिड़ियाँ दिखती हैं, लेकिन पेड़ों पर बैठीं या आसमान में उड़तीं हुई नहीं । बिजली या टेलीफोन के तारों पर बैठी, मगर बातचीत करतीं या घरों के अंदर यहाँ-वहाँ घोंसले बनाती नहीं दिखतीं। उन्हें देखकर लगता मानो वे प्राकृतिक नहीं, रबड़ या प्लास्‍टिक के बने खिलौने हैं, जो शायद ही इधर-उधर फुदक सकते हों या चूँ-चूँ की आवाजें निकाल सकते हों ।

ैं ऐसी संॅकरी और तंग गली में, मकानों की एक बहुत बड़ी भीड़ से बिजली या टेलीफोन के तारों से उलझे आसमान से एवं हरियाली के अभाव से जूझते अपने मुहल्‍ले से बाहर निकलने की भारी कोशिश में हूँ ।

– १० मार्च १९९8

सही साहित

सही और संपूर्ण साहित्‍य वह है, जिसे हम दोनों आँखों से देखते हैं-सिर्फ बाईं या सिर्फ दाईं आँख से नहीं ।

– 8 अगस्‍त, १९९8

जानें खुद को

िलकुल चुपचाप बैठकर सिर्फ अपने बारे में सोचें । कोशिश करें कि ‘दूसरे’ या ‘सब’ कहीं भी उस आत्‍मचिंतन के बीच में ना आएँ । इससे दो फायदे होंगे । एक तो हम अपने को जान सकेंगे कि हम स्‍वयं क्‍या हैं, जो दूसरों के बारे में सब कुछ जानने का दंभ रखते हैं । दूसरे, हमारे उस हस्‍तक्षेप से दूसरों की रक्षा होगी, जिसके प्रतिक्षण मौजूद रहते वे अपने बारे में न तो संतुलित ढंग से सोच पाते हैं, न सक्रिय हो पाते हैं । दूसरों की सोच-समझ में भी उतना ही भरोसा रखें, जिनमें हमें अपनी सोच-समझ में है ।

हर एक के प्रति हमारे मन में सहज सकारात्‍मक स्‍वीकृति का भाव होना चाहिए । दूसरा अन्य नहीं, अंतमय है, हमारे ही प्रतिरूप, हमसे अलग या भिन्न नहीं ।

– १२ नवंबर १९९8

सिर्फ मनुष्‍य होते …

कुछ लोग सोचते होंगे कि आखिर यह क्‍यों होता है, कैसे होता है कि आदमियों में ही कुछ आदमी बाघ, भेड़िये, लकड़बग्‍घे, सांॅप, तेंदुए, बिच्छू, गोजर वगैरह की तरह होते हैं और कुछ आदमी गायें, बकरी, भेड़, तितली वगैरह की तरह ? ऐसा क्‍यों नहीं होता कि जिस तरह सारे बाघ केवल बाघ होते हैं और कुछ नहीं, या जैसे सारी गायें केवल गायें होती हैं और कुछ नहीं, उसी तरह सारे मनुष्‍य केवल मनुष्‍य होते और कुछ नहीं…।

– ७ अगस्‍त १९९९

लुका-छिपाकर जीना

मुझे जीवन को सहज और खुले ढंग से जीना पसंद है । चीजों को लुका-छिपाकर, बातों और व्यवहार को रचा बसाकर जीना सख्त नापसंद है। वह चारित्रिक बेईमानी है, जिसे हम व्यवहार कुशलता का नाम देते हैं। इसके पीछे आत्‍मविश्वास की कमी झलकती है कि कहीं लोग हमारी असलियत को न जान जाएँ ।

आखिर वह असलियत इतनी गंदी और धूर्त क्‍यों हो कि उसे छिपाना जरूरी लगे ।

– 4 जनवरी २००१

जीने का अर्थ

बुढ़ापे का केवल यही अर्थ नहीं कि जीवन के कुछ कम वर्षबचे हैं; यह तथ्‍य तो जीवन के किसी खंड पर भी लागू हो सकता है- बचपन, यौवन बुढ़ापा… । खास बात है, जो भी वर्षबचे हैं, जब तक जीवित और चैतन्य हूँ, जिंदगी को क्‍या अर्थ दे पाता हूँ, या अपने लिए उससे क्‍या पाता हूँ, एेसा कुछ जिसका सबके लिए कोई महत्‍त्‍व है । लगभग इसी अर्थ में मैं साहित्‍यिक चेष्‍टा और जीवन चेष्‍टा को अपने लिए अविभाज्‍य पाता हूँ ।

७5 का हो रहा हूँ-यानी, जीने के लिए अब कुछ ही वर्ष बचे हैं लेकिन जीना बंद नहीं हो गया है । यह अहसास कि मृत्‍यु बहुत दूर नहीं है, उम्र के किसी भी मोड़ पर हो सकती है । ऐसा हुआ भी है मेरे साथ । तब हो या अब, यह सवाल अपनी जगह बना रहता है कि जीवन को किस तरहजिया जाए-सार्थकता से अपने लिए या दूसरों के लिए … ।

– २३ जनवरी २००२

दिल्‍ली में रहना

दिल्‍ली शहर में घर ढूँढ़ रहा हूँ । शहर, जैसे एक बहुत बड़ी बस ! सवारियों से लंद-फंद, हर वक्‍त चलायमान । दिल्‍ली में रहने का मतलब कहीं पायदान बराबर दो कमरों में दो पाँव टिकाकर किसी तरह लटक जाओ और लटके रहो उम्र भर । जिंदगी का मतलब बस इतना ही कि जब तक बन पड़े लटके रहो, फिर धीरे-से कहीं भीड़-भाड़ में गिर जाओ … ।

– १२ जून २००३

बहाने निकालना

जो हम शौक से करना चाहते हैं, उसके लिए रास्‍तेनिकाल लेते हैं । जो नहीं करना चाहते, उसके लिए बहाने निकाल लेते हैं… ।

– जनवरी २००६

अपने से बहस

बहस दूसरों से नहीं, अपने से करनी चाहिए उससे सच्चाई हाथ लगती है। दूसरों को सिर्फ सुनना चाहिए; दूसरों से बहस से केवल झगड़ा हाथ लगता है ।

चीजों की गुलामी

कुछ दिनों पहले एक कंप्यूटर ने मुझे चालीस हजार रुपयों में खरीदा है ! आज-कल उसकी गुलामी में हूँ । उसके नखरों को सिर झुकाकर झेलने मंे ही अपना कल्‍याण देख रहा हूँ । उसका वादा है कि एक दिन वह मुझे लिखने-पढ़ने की पूरी आजादी देगा । फिलहाल उसकी एकनिष्‍ठ सेवा में ही मेरा उज्‍ज्‍वल भविष्‍य है ।

इसके पहले एक मोटर मुझे भारी दामों में खरीद चुकी है । उसकी सेवा में भी हूँ । दरअसल, चीजों का एक पूरा परिवार है जिसकी सेवा में हूँ । आदमी का स्‍वभाव नहीं बदलता या बहुत कम बदलता है । गुलामी करना-करवाना उसके स्‍वभाव में है । सिर्फ तरीके बदले हैं, गुलामी की प्रवृत्‍ति नहीं । हजारों साल पहले एक आदमी मालिक होता था और उसके दरजनों गुलाम होते थे । अब हर चीज के दरजनों गुलाम होते हैं ।

– ३० सितंबर २०१०
(‘दिशाओं का खुला आकाश’ से)