पाॅयनियर प्रेस में प्रताप की समय की पाबंदी, शुद्ध-स्वच्छ लिखावट, सही-साफ हिसाब-किताब रखने की आदत, विनम्र-निश्चल व्यवहार ने बहुत जल्दी उनको विशिष्टता दे दी । अपना काम खत्म कर वे सहयोगी क्लार्कों का पिछड़ा काम भी अपनी मेज पर रख लेते और दफ्तर बंद हो जाने के घंटों बाद, रात देर तक काम में जुटे रहते । इस प्रकार वे अधिकारियों और सहकर्मियों, दोनों के प्रिय बन गए । घर से दफ्तर चार मील होगा; कुछ कम भी हो सकता है । फासले के मामले में मेरा अनुमान हमेशा गलत होता है-ज्यादा की तरफ । वे पैदल ही आते-जाते शायद पैसे बचाने की गरज से, साइकिल न उन्होंने खरीदी, न उसकी सवारी की ।
दफ्तर के लिए उन्होंने एक तरह की पोशाक अपनाई और जितने दिन दफ्तर में गए उसी में गए-काला जूता, ढीला पाजामा, अचकन जो उनके लंबे-इकहरे शरीर पर खूब फबती थी और दुपल्ली टोपी । जाड़ों में मेरी मॉं के हाथ का बुना ऊनी गुलूबंद उनके गले में पड़ा रहता था । दफ्तर से बाहर के लिए वे धोती पर बंद गले का कोट पहनते थे, सिर पर फेल्ट कैप जो उन दिनों विलायत से आती थी और काफी महँगी होती थी । पिता जी बाहर निकलते तो छाताउनके हाथ में जरूर होता । मौसम साफ हो और रात हो तो वे छड़ी लेकर चलते थे, पर पतली नहीं अच्छी मोटी-मजबूत । लंबी लाठी मेरे घर में नहीं थी, पर लाठी चलाने की तालीम पिता जी ने कभी जरूर ली होगी । मुझे एक बार की याद है । शहर में किसी कारण हिंदू-मुस्लिम दंगा हो गया था ।
पिता जी ने धोती ऊपर कर ली, कुरते की बॉंहें चढ़ा लीं और अपना पहाड़ी मोटा डंडा दाहिने हाथ से कंधे पर सँभाले, बायॉं हाथ तेजी से हिलाते, नंगे पॉंव आगे बढ़े । उन्होंने उनके पास जाकर कहा, ‘‘मैं लड़ने नहीं आया हँू । लड़ने को आता तो अपने साथ औरों को भी लाता । डंडा केवल आत्मरक्षा के लिए साथ है, कोई अकेला मुझे चुनौती देगा तो पीछे नहीं हटूँगा । मर्दकी लड़ाई बराबर की लड़ाई है, चार ने मिलकर एक को पीट दिया तो क्या बहादुरी दिखाई । अकेले सिरफिरे की बात समझी जा सकती है; चार आदमी मिलें तो उन्हें कुछ समझदारी की बात करनी चाहिए । इस तरह की लड़ाई तो बे-समझी की लड़ाई है, कहीं किसी ने किसी को मारा, आपने दूसरी जगह किसी दूसरी को मार दिया । धरम का नाता है तो पास-पड़ोस इन्सानियत का नाता भी है । इन्सान मेल से रहने को बना है । लड़ाई कितने दिन चलेगी,
दो दिन, चार दिन; पॉंचवें दिन फिर सुलह से रहना होगा । दोन-चार, दस-बारह, सौ-पचास हिंदू-मुसलमानों के कट-मरने से न हिंदुत्व समाप्त होगा न इस्लाम खत्म होगा । साथ रहना है तो खूबी इसी में है कि मेल से रहें । एक-दूसरे से टकराने की जरूरत नहीं; दुनिया बहुत बड़ी है ।’
पिता जी की बातों का असर हुआ । उस दंगे में फिर कोई वारदात नहीं हुई । आगे भी कई बार जब शहर में हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए, हमारे मुहल्लेमें शांति बनी रही ।
मेरे पिता का दैनिक जीवन प्रायः एक ढर्रेपर चलने वाला, नियमबद्ध और नैमित्तिक था । वे सवेरे तीन बजे उठते, शौचादि से निवृत्त होते और ठीक साढ़े तीन बजे गंगा स्नान के लिए चले जाते । पैदल आते; गंगा जी घर से तीन-चार मील के फासले पर होंगी । वे ठीक साढ़े छह बजे नहाकर लौटते, साथ में एक सुराही गंगाजल भी लाते, और पूजा पर बैठ जाते । पूजा के लिए जीने के नीचे एक छोटी-सी कोठरी थी; बगल की दीवार में एक अलमारी थी; उसपर एक बस्तेमें बॅंधी दो पुस्तकें रखी रहतीं, एक रामचरित मानस और दूसरी गीता । पूजा की कोठरी में कोई मूर्ति न थी, दीवार से राम, कृष्ण, शिव, गणेश, हनुमान, सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गाकी शीशे जड़ी छोटी-छोटी तस्वीरें लटकी थीं । पिता जी को बहुत झुककर उस कोठरी में जाना होता और अब वे उसमें बैठ जाते तो बस इतनी ही जगह बचती कि सामने रेहल रखकर उसपर पोथियॉं खोली जा सकें । वे मानस का नवाहिक पाठ करते थे, यानी प्रतिदिन इतना कि नौ दिन में पूरी रामायण समाप्त हो जाए । उनकी मानस की पोथी में, जो अब तक मेरे पास है, उन्हीं के हाथ के नवाहिक के निशान लगे हैं । पाठ वे सस्वर करते थे । उनकी आवाज सुरीली नहीं थी; गाते मैंने उनको कभी नहीं सुना, पर उनका स्वर साफ, सप्राण और लयपूर्णथा और कोठरी से निकली उनकी अावाज सारे घर में गूँजती थी । आवाज की पहली स्मृति मुझे उन्हीं के मानस पाठ के स्वर की है और जब तक मैं उनके साथ रहा प्रतिदिन उनके पास का स्वर मेरे कानों में गया । मैं कल्पना करता हॅंू कि सौरी में जन्म के पहले दिन से ही मैंने उनका पाठ स्वर सुनना शुरू कर दिया होगा । सौरी, पूजा की कोठरी के सामने दालान के एक सिरे पर बनाई जाती थी । राधा बताया करती थीं कि जब मैं बच्चा था तब चाहे कितनाही रोताक्यों न होऊँ जैसे ही मेरा खटोला पूजा की कोठरी के सामने लाकर डाल दिया जाता था, मैं चुप हो जाता था । जैसे मैं भी पिता जी का मानस पाठ सुन रहा होऊँ । मेरी माता तथा परिवार के अन्य लोग इसमें मेरे पूर्व जन्म के धार्मिक संस्कार की कल्पना करते थे । अब मैं ऐसा समझता हूँयह मेरे पिता जी के स्वर की लिफ्ट या लय थी जो मुझे शांत कर देती थी । इतना मंै जरूर मानता हूँकि इन श्रवण संस्कारों ने उस समय अद्भुत रूप से मेरी सहायता की होगी जब मैं गीता को ‘जनगीता’ का रूप दे रहा था, अवधी भाषा में, मानस की शैली में । अज्ञ रूप से मेरे अवचेतन और ज्ञात रूप से मेरे चेतन की शिरा-शिरा मानस की ध्वनियों से भीगी हुई थी ।
* पिता जी मौन रहकर गीता पढ़ते थे, शायद चिंतन करने की दृष्टि से; मानस में वे बहा करते थे । संस्कृत का उन्हंे साधारण ज्ञान था । मानस में आए संस्कृत अंशों को वे शुद्धता और सुस्पष्टता से पढ़ते थे पर संस्कृत से वह उच्चारण सुख अनुभव न करते थे जो अवधी से । कविता सस्वर पढ़ने का मुझे भी शौक है । ब्रज और अवधी की कविता मैं घंटों पढ़ सकता हूँ। मानस का तो सस्वर अखंड पाठ मैंने कई बार किया है, पर मानस की बात ही और है-खड़ी बोली की कविता मैं घंटे भर भी पढूँ तो मेरी जीभ ऐंठने लगती है, उर्दू के साथ यह बात नहीं है । खड़ी बोली कविता ने, कहते हुए खेद होता है, मानस की सूक्ष्म शिराओं को अभी कम ही छुआ है । वह जीवन से उठी हुई कम लगती है, कोष से उतरी हुई अधिक । कारणों पर यहॉं न जाऊँगा ।
पूजा से पिता जी ठीक साढ़े आठ बजे उठते । उस समय तक मेरी माता जी भोजन तैयार कर देतीं । वे रसोई में बैठकर भोजन करते और कपड़े पहन नौ बजते-बजते दफ्तर के लिए रवाना हो जाते । किसी-किसी दिन ऐसा भी होता कि किसी कारण भोजन समय पर तैयार न होता । पिता जी को बहुत गुस्सा अाता, मॉं कॉंपने लगतीं, पर गुस्सा निकालने का समय भी उनके पास न होता । वे जल्दी-जल्दी कपड़े पहनते और बगैर खाए दफ्तर के लिए चल पड़ते । अपनी पैंतीस वर्ष की नौकरी में, वे कहा करते थे एक दिन वे दफ्तर देर से नहीं पहँुचे । मेरी माता जी जल्दी-जल्दी पूरियाँ बनातीं और एक डिब्बे में खाना रखकर मुहल्ले के किसी आदमी से दफ्तर भिजवाती और जब तक आदमी मेरे पिता जी को खाना खिलाकर वापस न आ जाता वे भोजन न करतीं । जब कोई जाने वाला न मिलता तो उनका भी दिन भर का उपवास होता । घर की तीन बूढ़ियाँ-राधा, मेरी दादी और महारानी की बातें सुनने काे ऊपर से मिलती। मेरी मॉं न खातीं तो वे कैसे खातीं, पर अपनी भूख का गुस्सा वे दिन भर मॉं पर उतारती रहतीं।
पिता जी के दफ्तर से लौटने का कोई ठीक समय नहीं था । नौकरी के प्रारंभिक वर्षों में वे प्रायः देर से लौटते थे, आठ-नौ बजे, इससे भी अधिक देरी से, अौर खाना खाकर सो जाते थे । बाद को जब कुछ जल्दी आने लगे ताे खाना खाने से पहले कुछ देर पढ़ते कभी खाना खाने के बाद भी, और कभी तो घूमने निकल जाते । सुबह गंगा स्नान में आने-जाने के आठ मील, दिन को दफ्तर आने-जाने के आठ मील, यानी कुल सोलह मील चल लेने पर भी उनकी चलास तृप्त नही
होती थी और रात को भी दो-तीन मील घूम-फिर आने को वे तैयार रहते थे । तभी ताे मैं कहता हूँकि उन्हें चलने का मर्जथा । सबसे अचरज की बात यह थी कि रात को चाहे जितनी देर से सोऍं, उठते वे सुबह तीन ही बजे थे । उनका कहना था कि नींद लंबाई नहीं गहराई मांॅगती है । यानी कम घंटों की भी गहरी नींद ज्यादा घंटों की हल्दी नींद का काम कर देती है । उनके इस फारमूले के प्रति विश्वास ने मुझसे अपनी नींद पर कितना अत्याचार कराया है ! इसे सोचकर कभी-कभी मैं कहता हूँकि जब मैं मरूँतो मुझे सात-आठ दिन तक यों ही पड़े रहने देना-इस असंभव की कल्पना भर सुखद है-क्योंकि मुझे अपने जीवन की बहुत-सी रातों की नींद पूरी करनी है ।
समय की पाबंदी की जो उत्कटता उन्होंने अपनाई थी, उनके निबाहने के लिए घर के लोगों का सहयोग आवश्यक था । उन्हें सेंस आॅफ टाइम-वक्त का अंदाज-देने के लिए पिता जी ने अपनी नौकरी के पहले वर्ष में एक आराम घड़ी खरीदी और लाकर दालान की तिकोनिया पर रख दी । यह घड़ी नई नहीं थी, विक्टोरियन युग की थी, और पाॅयनियर के दफ्तर में बहुत दिनों से काम दे रही थी । वहॉं वह ‘कंडम’ माल की तरह निकाल दी गई तो पिता जी ने शायद दो रुपए में ले ली । यह घड़ी बेहया साबित हुई । थोड़ी-बहुत सफाई के बाद वह चलने लगी-चलने लगी तो चलती ही चली गई । सातवें दिन उसमें चाभी देनी पड़ती, वह एलार्म भी बजाती । उसके कभी घड़ीसाज के यहॉं जाने की मुझे याद नहीं । तिकोनिया और खाली, इसकी कोई तस्वीर मेरे दिमाग में नहीं । मेरे पिता के जीवनपर्यंत वह चलती रही । उनकी मृत्यु को लगभग तीस वर्ष होने आए हैं, अब भी वह चल रही है । मेरे पास नहीं है । मेरी बड़ी बहन के लड़के रामचंद्र (फुटबाॅल के अखिल भारतीय प्रसिद्धि के खिलाड़ी) उसे अपने नाना की एक निशानी के रूप में ले गए थे । मैं जब कभी राम के घर जाता हॅूं । हिर-फिरकर मेरी आँख उस घड़ी पर जा टिकती है । हमारे घर में कितने जन्म-मरण, शादी-ब्याह, भोजमहोत्सव उसने देखे हैं; कितने हर्ष[1]विषाद, अश्रु-हास, वाद-विवाद, कितने क्रोध-कलह, रोदन-गायन, श्रम-संघर्ष की वह साक्षी रही है ! मेरी मॉं अक्सर कहती थीं कि ‘‘नाम तो एकर आराम घड़ी है, पर न ई खुद आराम करत है न केहू क आराम करै देत है !’’ आराम घड़ी नाम ऐसी घड़ियों को शायद इसलिए दिया गया होगा कि ये एक जगह रख दी जाती हैं, ‘अलार्म’ से ‘आराम’ आया हो तो भी कोई अचरज की बात नहीं । कभी-कभी ‘आराम’ का ‘आ’ भी छोड़ दिया गया है और ऐसी घड़ियों को मैंने लोगों को राम घड़ी भी कहते सुना है ।