चि. प्यारी पुत्री शांति,
ता. २१-१२-६७ का पत्र मिला । इसमें भी अपना कोई विचार, अनुभव या निर्णय नहीं है । एक ही विषय का उल्लेख है । जो कुछ भी हम करें, समझ-बूझकर करें, यह नसीहत अच्छी है । पू. बापूजी भी कहते थे कि मनुष्य का जीवन कर्ममय तो होना चाहिए किंतु साथ-साथ विचार भी हो । बापूजी के जर्मन ज्यू दोस्त कैलनबैक बापूजी से कहते थे-‘आपके हर एक काम के पीछे स्पष्ट विचार, चिंतन और सिद्धांत निष्ठा होती ही है । क्षण-क्षण ऐसी नित्य जागरूकता देखकर हम आश्चर्यचकित होते हैं ।’
दूसरा प्रमाण पत्र गांधीजी को पंडित मदनमोहन मालवीय जी की ओर से मिला था । वे बापूजी से कहते थे, ‘कैसा आश्चर्य है कि हम अनेक लोग मिलकर, अनेक ढंग से चर्चा करने पर भी जब निर्णय नहीं कर सकते तब अापके पास आते हैं । आप सबको संतोष हो ऐसा निर्णय देते हैं अथवा रास्ता सुझाते हैं । यह तो ठीक लेकिन कितनी जल्दी, तुरंत निर्णय देते हैं । बड़ा कौतुक होता है ।’ पू. बापूजी के मुँह से ही ये बातें सुनी थीं । पू. बापूजी सिद्धांतनिष्ठ तो थे और उनके सिद्धांत उनको अंध नहीं बनाते थे । सिद्धांतों का निर्णय और अर्थ वे तार्किक बुद्धि से करते नहीं थे । इसलिए मैं कहता था-गांधीजी कभी भी तर्कांध नहीं थे । तुम्हारे पत्र हमेशा प्रश्नार्थक ही होते हैं लेकिन तुम्हारे प्रश्न सुंदर ढंग से रखे जाते हैं। प्रश्न के आस-पास का वायुमंडल उपस्थित करके ही प्रश्न को सजीव किया जाता है । इसीलिए प्रश्न की चर्चा करने में आनंद आता है और विचार विस्तार से लिखने की इच्छा भी होती है ।
श्रद्धा, बुद्धि, समझ, अनुभव, कल्पना, अभ्युपगम आदि सब बातें अपनी-अपनी दृष्टि पेश करती हैं किंतु जब हम जीवनदृष्टि को प्रधानता देते हैं तब इन सभी का आप-ही-आप सामंजस्य हो जाता है । जीवन ही एक ऐसा सर्वमंगलकारी तत्त्व है, जिसमें सब शुभ दृष्टियों का अभयदान है । सामंजस्य और समन्वय ही जीवन का सच्चा व्याकरण है ।
उन्नत जीवन के लिए मनुष्य को बुद्धि के आगे जाना है इसमें शक नहीं लेकिन आगे जाने के लिए उसे पासपोर्ट तो बुद्धि से ही लेना चाहिए। बुद्धि ने जिस रास्ते को हीन, गलत और त्याज्य बताया, उस रास्ते को तो तुरंत छोड़ ही देना चाहिए । जब बुद्धि कहती है कि फलाने रास्ते जाने से लाभ है या हानि है मैं जानती ही नहीं क्योंकि मेरी पहॅुंच उस दिशा में, उस क्षेत्र में है नहीं । इसलिए मैं तुम्हें उस रास्ते काे आजमाने की अनुमति देती हँू, आशीर्वाद भी देती हँू । मुझे वहाँ न ले चलो क्योंकि मेरी मदद, वहाँ न होगी । तब हम गूढ़ क्षेत्र में प्रवेश करते हैं । वहाँ श्रद्धा ही मदद कर सकती है । शायद बात सही होगी, शायद कुछ मिलेगा, प्रयत्ननिष्फल नहीं होगा, ऐसे भाव से प्रवृत्त होना श्रद्धा का रास्ता है। जब श्रेष्ठ लोग कहते हैं और मेरा मन भी उस ओर झुकता है तब वह चीज जरूर सही होगी । ऐसा मानने की तरफ अनुकूल झुकाव, यही है सच्ची श्रद्धा का रास्ता ।
ज्ञान के कई क्षेत्र हैं, जिनमें श्रद्धा की मदद के बिना यात्रा का प्रारंभ ही नहीं हो सकता किंतु जो आदमी श्रद्धा को ले बैठता है और यात्रा का कष्ट नहीं करता उसे क्या मिलने वाला है ? श्रद्धा के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं होगा और केवल श्रद्धा से भी नहीं होगा । तो क्या चाहिए ? चाहिए ज्ञानप्राप्ति के लिए प्रयत्न, प्रयोग और कसौटी करने की तत्परता । ये प्रयोग तत्परता से, सत्यपरायणता से वही कर सकेगा जो निर्भय और प्राणवान है । इसके लिए संयतेंद्रिय होना जरूरी है । ‘श्रद्धावान लभते ज्ञानम्तत्परः संयतेंद्रियः।’ अब कहो तर्क, बुद्धि, समझ, श्रद्धा, कल्पना, अभ्युपगम इनमें कोई विरोध है?
मनुष्य के अनुभव और साक्षात्कार भी एकांगी हो सकते हैं और वचन सत्य होते हुए भी सत्य को पूर्णरूप से व्यक्त करने में असमर्थ भी हो सकते हैं । इसीलिए धर्मग्रंथों का, ॠषि वचनों का और महावाक्यों का अर्थ समय-समय पर व्यापक होता आया है । अंतिम सत्य अर्थात परम सत्य समझने में भी क्रम विकास पाया जाता है । जहाँ अतिश्रद्धा है वहाँ गुरु के वचनों का व्यापक अर्थ करते भी शिष्य डरता है । कभी-कभी गुरु लोग शिष्यों की ओर से अतिश्रद्धा की ही अपेक्षा रखते हैं । ऐसे लोगों ने ही सिद्धांत चलाया है, श्रद्धा रखो तो बेड़ा पार है, उद्धार हो ही जाएगा । इसमें अलं बुद्धि आती है जो प्रगति के लिए मारक है । सत्यनिष्ठा, आत्मनिष्ठा और अनुभवमूलक जीवननिष्ठा यही मुख्य बात है ।
काका के सप्रेम शुभाशीष