सतत प्रवाहमान !
जीवन की पहचान !
मैं एक गीली हलचल हूँ,
मेरे स्वर में कल-कल है
मैं जल हूँ !
सिंधु यानी
धरती पर सभ्यताओं का
आदि बिंदु ।
मेरे ही किनारे पर
संस्कृतियों ने साँस ली
मेरे ही तटों पर
इंसानियत के यज्ञ हुए
गति कभी मंद ना हुई मेरी
गति में चंचल
पर भावना में अचल हूँ ।
मैें सिंधु नदी का
पावन जल हूँ ।
मैं नहाने वाले से
नहीं पूछता उसकी जात,
उनका मजहब,
उनका धर्म,
मैं तो बस जानता हूँ
जीवन का मर्म ।
वो लहरें
जो सहसा उछलती हैं,
सदा जिंदगी की ओर मचलती हैं ।
प्यास बुझाने से पहले
मैं नहीं पूछता
दोस्त है या दुश्मन ।
मैल हटाने से पहले
नहीं पूछता मुस्लिम है या हिंदुअन ।
मैं तो सबका हूँ
और जी भर के पिएँ ।
छोटी-छोटी सांस्कृतिक नदियाँ
दौड़ी-दौड़ी आती हैं
मुझमें सभ्यताएँ समाती हैं
घुल-मिल जाती हैं
लेकिन क्या बताऊँ
और कैसे कहूँ
कभी-कभी
बहता हुआ आता है लहू
जब मेरे घाटों पर
खनकती हैं तलवारें
गूँजती हैं टापें
गरजती हैं तोपें
होते हैं धमाके
और शहीद होते हैं
रणबांॅकुरे बांॅके,
मैं नहीं पूछता
कि वे थे कहाँ के ।
मैं नहीं देखता
कि वे यहाँ के हैं
कि वहाँ के ।
मैं तो सबके घाव धोता हूँ
विधवा की आँखों में
आँसू बनकर मैं ही तो रोता हूँ ।
ऐसे बहूँया वैसे
प्यारे मनुष्यों, बताऊँ कैसे
मैं सिंधु में बिंदु हूँ,
बिंदु में सिंधु हूँ,
लहराते बिंबों में
झिलमिलाता इंदु हूँ ।