5. अतीत के पत्र

परम पूज्‍य बापूजी,

एक साल पहले अस्‍वास्‍थ्‍य के कारण आश्रम से बाहर गया था । यह तय हुआ था कि दो-तीन मास वाई रहकर आश्रम लौट जाऊँगा । पर एक साल बीत गया, फिर भी मेरा कोई ठिकाना नहीं । पर मुझे कबूल करना चाहिए कि इस बारे में सारा दोष मेरा ही है । वैसे मामा (फड़के) को मैंने एक-दो पत्र लिखे थे । आश्रम ने मेरे हृदय में खास स्‍थान प्राप्त कर लिया है, इतना ही नहीं, अपितु मेरा जन्म ही आश्रम के लिए है, ऐसी मेरी श्रद्धा बन गई है । तो फिर प्रश्न उठता है कि मैं एक वर्ष बाहर क्‍यों रहा ?

 जब मैं दस वर्षका था तभी मैंने ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करते हुए देशसेवा करने का व्रत लिया था । उसके बाद मैं हाईस्कूल में दाखिल हुआ । उस समय मुझे भागवत गीता के अध्ययन का शौक लगा । पर मेरे पिता जी ने दूसरी भाषा के तौर पर फ्रेंच लेने की आज्ञा दी । तो भी गीता पर का मेरा प्रेम कम नहीं हुआ था और तभी से मैंने घर पर ही खुद-ब-खुद संस्‍कृत का अभ्‍यास शुरू कर दिया था । मैं आपकी आज्ञा लेकर आश्रम में दाखिल हुआ पर उसी समय वेदांत का अभ्‍यास करने का अच्छा मौका हाथ लगा । वाई मंे नारायण शास्‍त्री मराठे नामक एक आजन्म ब्रह्मचारी विद्‌वान विद्‌यार्थियों को वेदांत तथा दूसरे शास्‍त्र सिखाने का काम करते हैं । उनके पास उपनिषदों का अध्ययन करने का लोभ मुझे हुआ । इस लोभ के कारण वाई में मैं ज्‍यादा समय रह गया । इतने समय में मैंने क्‍या-क्‍या किया, यह लिखता हूँ ।

जिस लोभ के खातिर मैं इतने दिनों आश्रम से बाहर रहा, मेरा वह लोभ और उसका कार्य नीचे लिखे अनुसार है ः स्‍वास्‍थ्‍य सुधार के निमित्‍त पहले तो मैंने दस-बारह मील घूमना शुरू किया । बाद में छह से आठ सेर अनाज पीसना चालू किया । आज तीन सौ सूर्यनमस्‍कार और घूमना, यह मेरा व्यायाम है । इससे मेरा स्‍वास्‍थ्‍य ठीक हो गया ।

आहार के विषय में ः पहले छह महीने तक तो नमक खाया । बाद में उसे छोड़ दिया । मसाले वगैरा बिलकुल नहीं खाए और आजन्म नमक और मसाले न खाने का व्रत लिया । दूध शुरू किया । बहुत प्रयोग करने के बाद यह सिद्ध हुआ कि दूध बिना बराबर चल नहीं सकता । फिर भी अगर इसे छोड़ा जा सकता हो तो छोड़ देने की मेरी इच्छा है । एक महीना केले, दूध और नींबू पर बिताया । इससे ताकत कम हुई ।

 कार्य

१. गीता का वर्ग चलाया । इसमें छह विद्‌यार्थियों काे अर्थ-सहित सारी गीता सिखाई बिना पारिश्रमिक के ।

२. ज्ञानेश्वरी छह अध्याय । इस वर्ग में चार विद्‌यार्थी थे ।

३. उपनिषद नौ । इस वर्ग में दो विद्‌यार्थी रहे ।

  1. हिंदी प्रचार ः मैं स्‍वयं अच्छी हिंदी नहीं जानता । फिर भी विद्‌यार्थियों को हिंदी के समाचार-पत्र पढ़ने-पढ़ाने का क्रम रखा ।
  2. अंग्रेजी दो विद्‌यार्थियों को सिखाई ।

६. यात्रा लगभग चार सौ मील पैदल । राजगढ़, सिंहगढ़, तोरणगढ़ आदि इतिहास प्रसिद्ध किले देखें ।

७. प्रवास करते समय गीता जी पर प्रवचन करने का क्रम भी रखा था । आज तक ऐसे कोई पचास प्रवचन किए । अब यहाँ से आश्रम आते हुए पहले पैदल मुंबई जाऊँगा और वहाँ से रेल से आश्रम पहुँचूंॅगा। मेरे साथ पच्चीस वर्ष का एक विद्‌यार्थी प्रवास कर रहा है । मुझसे गीता सीखने का उसका विचार है । मैं अधिक से अधिक चैत्र शुक्‍ल १ को आश्रम पहुँचूँगा ।

  1. वाई में ‘विद्‌यार्थी मंडल’ नाम की एक संस्‍था की स्‍थापना की । उसमें एक वाचनालय खोला और उसकी सहायता के लिए चक्‍की पीसने वालों का एक वर्ग शुरू किया । उसमें मैं और दूसरे १5 विद्‌यार्थी चक्‍की पीसते। जो मशीन की चक्‍की पर पिसवाने ले जाते उनका काम हम (एक पैसे में दो सेर हिसाब से) करते और ये पैसे वाचनालय को देते । पैसेवालों के लड़के भी इस वर्ग में शामिल हुए थे । यह वर्ग कोई दो मास चला और वाचनालय में चार सौ पुस्‍तकें इकट्ठी हो गईं ।

९. सत्‍याग्रहाश्रम के तत्‍त्‍वों का प्रचार करने का मैंने काफी प्रयत्‍न किया ।

१०. बड़ौदा में दस-पंद्रह मित्र हैं । इन सबको लोकसेवा करने की इच्छा है । इस कारण वहाँ तीन वर्ष पहले हमने मातृभाषा के प्रसार के लिए एक संस्‍था स्‍थापित की थी । इस संस्‍था के वार्षिकोत्‍सव मंे गय

था । (उत्‍सव यानी संस्‍था के सभासद इकट्ठे होकर क्‍या काम किया, आगे क्‍या करना है इसकी चर्चा)। उसमें मैंने वहाँ हिंदी प्रचार करने का विचार रखा । मेरी श्रद्धाहै कि वह संस्‍था यह काम जरूर करेगी। आपने हिंदी प्रचार का जो प्रयत्‍न शुरू किया है उसमें बड़ौदा की यह संस्‍था काम करने को तैयार रहेगी ।

 अंत में सत्‍याग्रहाश्रम निवासी के तौर पर मेरा आचरण कैसा रहा, यह कहना आवश्यक है ।

अस्‍वादव्रत-इस विषय पर भोजन संबंधी प्रकरण में ऊपर लिखा जा चुका है ।

अपरिग्रह-लकड़ी की थाली, कटोरी, आश्रम का एक लोटा, धोती, कंबल और पुस्‍तकें, इतना ही परिग्रह रखा है । बंडी, कोट, टोपी वगैरा न पहनने का व्रत लिया है । इस कारण शरीर पर भी धोती ही ओढ़ लेता हूँ । करघे पर बुना कपड़ा ही इस्‍तेमाल करता हूँ ।

 स्‍वदेशी-परदेशी का संबध मेरे पास है ही नहीं, (आपके संबंध मद्रास के व्याख्यान के अनुसार व्यापक अर्थ न किया हो तो ही) । सत्‍य-अहिंसा-ब्रह्मचर्य- इन व्रतों का परिपालन अपनी जानकारी में मैंने ठीक-ठीक किया है, ऐसा मेरा विश्वास है ।

 अधिक क्‍या कहूँ? जब भी सपने आते हैं तब मन में एक ही विचार आता है । क्‍या ईश्वर मुझसे कोई सेवा लेगा ? मैं पूर्णश्रद्धा से इतना कह सकता हूँकि आश्रम के नियमों के अनुसार (एक को छोड़कर) मैं अपना आचरण रखता हँू । यानी मैं आश्रम का ही हूँ। आश्रम ही मेरा साध्य है । जिस एक बात की कमी का मैंने उल्‍लेख किया है वह है अपना भोजन (यानी भाकरी) स्‍वयं बनाना । मैंने इसका भी प्रयत्‍न किया; पर प्रवास में यह संभव न हो सका ।

 सत्‍याग्रह का या दूसरा कोई (शायद रेल संबंधी सत्‍याग्रह शुरू करने का) सवाल पैदा होता हो तो मैं तुरंत ही पहँुच जाऊँगा ।

 इधर आश्रम में क्‍या फेरफार हुए हैं तथा कितने विद्‌यार्थी हैं ? राष्‍ट्रीय शिक्षा की योजना क्‍या है ? तथा मुझे अपने आहार में क्‍या परिवर्तन करना चाहिए, यह जानने की मेरी प्रबल इच्छा है । आप स्‍वयं मुझे पत्र लिखें, ऐसा विनोबा का-आपको पितृतुल्‍य समझने वाले आपके पुत्र का आग्रह है ।

 मैं दो-चार दिन में ही यह गाँव छोड़ दूँगा ।

विनोबा के प्रणाम

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 (यह पत्र पढ़कर ‘‘गोरख ने मछंदर को हराया । भीम है भीम ।’’ यह उद्गार बापू के मुँह से निकले थे । सुबह उनको इस प्रकार उत्तर दिया)

 तुम्‍हारे लिए कौन-सा विशेष काम मैं लाऊँ, यह मुझे नहीं सूझता । तुम्‍हारा प्रेम और तुम्‍हारा चरित्र मुझे मोह में डुबो देता है । तुम्‍हारी परीक्षा करने में मैं असमर्थ हूँ । तुमने जो अपनी परीक्षा की है उसे मैं स्‍वीकार करता हूँ। तुम्‍हारे लिए पिता का पद ग्रहण करता हूँ । मेरे लोभ को तो तुमने लगभग पूरा ही किया है । मेरी मान्यता है कि सच्चा पिता अपने से विशेष चरित्रवान पुत्र पैदा करता है । सच्चा पुत्र वह है जो, पिता ने जो कुछ किया है उसमें वृद्‌धि करें । पिता सत्‍यवादी, दृढ़, दयामय हो तो स्‍वयं अपने में ये गुण विशेषता से धारण करें । यह तुमने किया है, ऐसा दिखता है । तुमने यह मेरे प्रयत्‍नों से किया है, ऐसा मुझे नहीं मालूम होता । इस कारण तुमने मुझे जो पिता का पद दिया है उसे मैं तुम्‍हारे प्रेम की भेंट के रूप में स्‍वीकार करता हँू । उस पद के योग्‍य बनने का प्रयत्‍न करूँगा और जब मैंे हिरण्यकश्यप साबित होऊँ तो प्रह्लाद भक्‍त के समान मेरा सादर निरादर करना ।

 तुम्‍हारी यह बात सच्ची है कि तुमने बाहर रहकर आश्रम के नियमों का बहुत अच्छी तरह पालन किया है । तुम्‍हारे आश्रम में आने के बारे में मुझे शंका थी ही नहीं। तुम्‍हारे संदेश मामा (फड़के) ने मुझे पढ़कर सुनाए थे । ईश्वर तुम्‍हें दीर्घायु करें और तुम्‍हाराउपयोग हिंद की उन्नति के लिए हो, यही मेरी कामना है ।

 तुम्‍हारे आहार में किसी प्रकार कापरिवर्तन करने का अभी तो मुझे कुछ नहीं लगता । दूध का त्‍याग अभी तो मत करना । इतनाही नहीं, आवश्यकता हो तो दूध की मात्रा बढ़ाओ ।

 रेल-विषयक सत्‍याग्रह की आवश्यकता अभी नहीं है । पर उसके लिए ज्ञानी प्रचारकों की आवश्यकता है । यह संभव है कि शायद खेड़ा जिले में सत्‍याग्रह करना पड़ जाए । अभी तो मैं रमता राम हूँ । दो-एक दिन में दिल्‍ली जाऊँगा ।

 विशेष तो जब आओगे तब । सब तुमसे मिलने को उत्‍सुक हैं।

 बापू के आशीर्वाद

(बाद में बापू के उद्गार-‘‘बहुत बड़ा मनुष्‍य है । मुझे अनुभव होता रहा है कि महाराष्‍ट्रियों और मद्रासियों के साथ मेरा अच्छा संबंध रहा है । महाराष्‍ट्रियों मंे तो किसी ने मुझे निराश किया ही नहीं । उसमें भी विनोबा ने तो हद कर दी !’’)