गाड़ी अपनी गति से बढ़ रही थी । भटिंडा, हनुमानगढ़, लालगढ़ और बीकानेर होते हुए नागौर पहुँची । यहाँ से मेड़ता पहुँचे तो लगा, फिर से पंजाब के आसपास आ गए हैं, क्योंकि कुछ खेत, हरियाली और पशुधन भी दृष्टिगोचर होने लगे थे । सायंकाल होते-होते अपना गंतव्य स्टेशन ‘जाेधपुर’ आ गया । आज का हमारा पड़ाव ‘जोधपुर’ था, यों भी सायंकाल हो चुका था । स्टेशन के समीप होटल में कमरा मिल गया । सामान वहाँ रखकर थोड़ा तरोताजा हुए ।
२२ दिसंबर अल्पाहार कर एक ऑटो रिक्शा लेकर अपनी पहली मंजिल ‘उम्मेद भवन’ की ओर चल पड़े जो ‘राई का बाग’ क्षेत्र में स्थित है । ‘उम्मेद भवन’ विश्व का विशालतम भवन । महाराजा उम्मेद सिंह द्वारा निर्मित हाेने से ‘उम्मेद भवन’ कहलाता है । छीतर झील के पास होने से इसे ‘छीतर भवन’ भी कहते हैं । इसके निर्माण मंे बीस वर्ष का समय लगा । यह भवन अपनी भव्य एवं उत्कृष्ट सज्जा से सज्जित है । इसमें ऐश्वर्य, विलास और आमोद-प्रमोद के सभी साधन उपलब्ध हैं ।
महल के प्रवेश द्वार पर नियुक्त द्वारपाल ने बताया कि महल के तीन सौ तैंतालीस कमरों को ‘होटल’ के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है । एक भाग में शाही परिवार रहता है । होटल में प्रवेश और वहाँ बैठकर चाय या काॅफी का एक कप, एक व्यक्ति (पर्यटक) के लिए कम-से-कम एक हजार रुपया खर्च, कोई आश्चर्यवाली बात नहीं । भूतल पर एक म्यूजियम बनाया गया है, जिसमें वहाँ के राजाओं की, उनके क्रिया कलापों की, युद्ध-कौशल की अनेकानेक जानकारियाँ चित्रों के माध्यम से प्रस्तुत की गई हैं । ‘भवन’ का मॉडल भी प्रदर्शित किया गया है । सब कुछ इतना सुंदर, सजीव भव्य और मनोहर था कि दृष्टिकिसी भी चित्र पर चिपक- सी जाती थी, जिसे वहाँ से जबरन हटाना पड़ता था, क्योंकि अभी हमें अपने दूसरे गंतव्य की ओर बढ़ना था । गंतव्य था मंडोर गार्डन ।
यह उद्यान मारवाड़ की पुरानी राजधानी मांडव्यपुर के समीप जोधपुर नरेशों के द्वारा बनाया गया था । ‘मांडव्यपुर’ का ही अपभ्रंश रूप ‘मंडोर’ है । यहाँ बनाया गया भगवान कृष्ण का मंदिर कला की उत्कृष्टता का
प्रमाण है । चट्टानों को काट-काटकर निर्मित सीढ़ीनुमा उद्यान दर्शनीय है । ‘रानी उद्यान’ के आगे तीन तलोंवाली एक इमारत, इसकी प्रहरी जान पड़ती है । मार्ग के दाेनों ओर जलाशय बने हैं, उद्यान में प्रवेश करते ही वहाँ के लोकगीत गायक अपने-अपने वाद्याें पर किसी-न-किसी हिंदी या राजस्थानी गीत की धुन छेड़कर, पर्यटकों र्य को प्रसन्न कर उनसे कुछ दक्षिणा की आकांक्षा करते जान पड़ते ।
रानी उद्यान की बाईं ओर पहाड़ी की एक चट्टान पर वहाँ के वीरों ने देवताओं की विशाल मूर्तियाँ बनवाईं । चट्टान को काटकर मूर्तियों को दर्शाया गया है, वह दृश्य अनुपम है । मंडोर गार्डन के दृश्यों से अभिभूत हम मेहरान गढ़/किले की ओर बढ़ने लगे, जो शहर के मध्य में 4०० फीट ऊँची पहाड़ी पर २० फीट से १२० फीट ऊँची दीवार के परकोटे से घिरा है । इसका निर्माण कार्य१45९ में जोधा जी राव द्वारा कराया गया था । उसके परकोटे में जगह-जगह बुर्जियाँ बनाई गई हैं । इस किले में भव्य प्रवेश द्वार जयपोल, लोहपोल आैर फतहपोल बने हैं । जयपोल तक आते-आते ही शहर नीचे रह जाता है और हम काफी ऊपर आ जाते हैं । दोपहर की रेगिस्तानी धूप आैर शाम की चमकती चाँदनी में शहर का भव्य व मनोरम दृश्य यहाँ से बड़ा ही मनभावन दिखाई देताहै । ये प्रवेश द्वार जोधा जी राव के विभिन्न वंशजों द्वारा विजय के प्रतीक रूप में बनवाए गए हैं । द्वाराें की दीवारों पर जौहर करने वाली वीरांगनाओं के हस्तचिह्न भी बने हैं । दुर्गके अंदर कई भव्य आैर विशाल भवन हैं, जैसे-मोतीमहल, फूलमहल, शीशमहल, दौलतखाना, फतहमहल आैर रानी सागर आदि । कहीं बैठकखाना तो कहीं दीवानेखास; दीवानेआम हैं तो कहीं कला की प्रदर्शनी हेतु पेंटिंग्स एवं दरियाॅं भी प्रदर्शित की गई हैं ।
इसके बाद हम दूसरी पहाड़ी पर स्थित ‘जसवंत थड़ा’ नाम से विख्यात स्मारक देखने चल पड़े । प्रवेश द्वार के एक ओर महादेव का मंदिर है तो दूसरी ओर देव सरोवर । यहाँ अनेक पक्षी भाँति-भाँति की चिड़ियाँ चहचहाकर अपनी प्रसन्नता की सकारात्मक ऊर्जा पर्यटकों को प्रदान कर रही थीं । यह स्मारक १९०३ में महाराजा जसवंतसिंह की स्मृति में बनाया गया था । जोधपुर के इन सभी स्थलों की चित्रकला, स्थापत्य कला एवं मूर्तिकला को देखकर भारतीय कलाकारों का सम्मान तथा उन्हें नमन करने का मन करता है । अब सूर्य भी अपनी किरणों को समेट अस्ताचलगामी हो गया था । फलतः हमें भी अपने विश्राम स्थल की ओर बढ़ना था ।
जोधपुर से जैसलमेर रात्रि की गाड़ी थी । जोधपुर-जैसलमेर एक्सप्रेस से तत्काल का आरक्षण कराया और चल पड़े । अगली प्रातः को हम जैसलमेर स्टेशन पर उतरे। समय व्यर्थ न गँवाते हुए हम शीघ्र ही होटल की वैन में बैठ गए और थोड़ी ही देर में होटल के स्वागत कक्ष में आसीन थे ।
एक कक्ष में हमारा सामान पहुँचाकर दिन भर का कार्यक्रम होटल के मालिक ने ऐसे निर्धारित कर दिया, जैसे किसी पूर्वपरिचित अतिथि का । थोड़ी देर के बाद ही नगर-भ्रमण की व्यवस्था हो गई । पहले यहाँ का सबसे बड़ा आश्चर्य देखने गए-पटवा की हवेलियाँ । १8 वीं सदी में शहर के प्रसिद्ध व्यापारी सेठ पटवा ने अपने पाँच पुत्रों के लिए इन हवेलियों का निर्माण कराया था । एक के निर्माण में १२ वर्ष का समय लगा । शहर के मध्य में खड़ी ये पाँच हवेलियाँ कलात्मक वास्तुशिल्प का अद्भुत नमूना है । इनकी छतें बहुत ही खूबसूरत पत्थर के खंभों (स्तभों) पर खड़ी हैं । हवेलियाें में पत्थर से बनी जालियों का काम, कई पारदर्शक झरोखे, सोने की कलम से की गई चित्रकारी, सीपी और काँच का कार्यपर्यटकों को आश्चर्यचकित कर देता है । धन्य हैं वे शिल्पकार, जिनके हाथ और मस्तिष्क ने यह करिश्मा किया है ।
* आज ही ‘सम’ का कार्यक्रम भी था ।‘सम’ एक ग्राम है, जो होटल से ११-१२ कि.मी. दूर रेत की चादर पर बसा है । इस ‘सम’ ग्राम से डेढ़-दो कि.मी. पहले ही जीप ने हमें उतार दिया, जहाँ कई सारे रेगिस्तानी जहाज (ऊँट) अपनी सवारियों की प्रतीक्षा कर रहे थे । हम भी एक जहाज में सवार हो गए । डर भी लग रहा था, प्रसन्नता भी हो रही थी, उत्सुकता भी । हमारी मंजिल थी- सूर्यास्त केंद्र बिंदु । ऊँट की सवारी का यह पहला अनुभव था । ऊँटों की कतारें ही कतारें, सभी पर नर-नारी और बाल-वृद्ध सवार थे, शायद सभी की हृदयगति वैसे ही धड़क रही थी, जैसी हमारी । फिर भी रोमांचकारी और मनोरंजक । कुछ ऊँट अपनी सवारियों को गंतव्य तक पहुँचाकर वापस आ रहे थे । यहाँ रेत के मखमली गद्दे जिन पर आपके पग पाँच-सात अंगुल नीचे धँसते जाते हैं । पंक्तिबद्ध ऊँटों की कतारें, उनपर रंग-बिरंगी पोशाकों में आसीन पर्यटक शायद अपने गिरने के भय में खोए दम साधे बैठे थे । देखते-ही-देखते हम सब अपने गंतव्य पर पहुँच गए ।*
क्या अद्भुत दृश्य था । बच्चों के खिलौने, दूरबीन, चिप्स, कुरकुरे, खाखड़ा चाट-पकौड़े जैसी अनेक वस्तुएँ लिए विक्रेता चलती-फिरती दुकानों की तरह घूम रहे थे । कुछ राजस्थानी कन्याएँ और स्त्रियाँ लोकगीत सुनाकर पर्यटकों को प्रसन्न करने में निमग्न थीं । अनेक पर्यटक अपने कैमरे के बटन ऑन कर अस्ताचलगामी भास्कर को कैमरे में बंद करने के लिए सन्नद्ध थे । देखते-ही-देखते चमकता सूर्य ताम्रवर्णी होकर जल्दी-जल्दी दूर क्षितिज में लय होता जा रहा था, साथ ही पर्यटकों के कैमरों में कैद भी । कुल मिलाकर वह जन सैलाब किसी महाकुंभ की याद ताजा करा रहा था ।
अब सब गाड़ियों की ओर चल पड़े जो लगभग आधे फर्लांग पहले खड़ी थीं, उस मार्गमें चलते हुए उस मखमली फोम के गद्दों की अनुभूति हो रही थी । जीप पर सवार हुए और आ गए जहाँ सांस्कृतिक कार्यक्रम तथा रात्रि-भोज का प्रबंध था । मध्य में अग्नि प्रज्वलित की गई थी । तीन ओर दर्शकों के बैठने की व्यवस्था थी तो एक ओर प्रस्तुति देने वाले कलाकारों का मंच बनाया गया था । उसमें राजस्थान के जाने-माने कलाकारों ने वहाँ की लोक संस्कृति को नृत्य-नाटिका और गायन के माध्यम से जो प्रस्तुति दी, वह अद्भुत थी । देश-विदेश में प्रस्तुति देने वालों का यह संगम दर्शकों को भाव विभोर किए था । रात्रि-भोज की तैयारी संपन्न हो चुकी थी । भोजन में राजस्थानी व्यंजनों का वैविध्य था । सेल्फ सर्विस-जैसा रुचे, जितना रुचे, लीजिए, खाइए, आनंद उठाइए की तर्ज पर सब भोजन कर रहे थे ।
इन सब स्मृतियों के साथ होटल वापस आए, वहाँ से भी सामान उठा पुनः स्टेशन, वही रात्रि यात्रा और पहुँच गए ‘जोधपुर’ । जैसलमेर से ‘चित्तौड़’ जाने की यात्रा कर हम २4 दिसंबर के सायंकाल तक ‘चित्तौड़गढ़’ पहुँच गए ।
चित्तौड़गढ़ का नाम आए या चेतक का, तुरंत एक वीर, साहसी और स्वामिमानी देशभक्त का चित्र मानसपटल पर सजीव हो उठताहै । महाराणा प्रताप, जिन्होंने चित्तौड़ की रक्षा में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, लेकिन आत्मसमर्पण नहीं किया । भले ही महलों को त्यागकर जंगल में शरण लेनी पड़ी, बच्चों आैर परिवार को भूखा रखना पड़ा, विशाल धरती शैया आैर खुला नील गगन चादर रहा, पर हार नहीं मानी । ऐसे ही एक और देशभक्त आैर स्वामिभक्त की याद ताजा हो जाती है -भामाशाह जिसने अपनी सारी पूँजी अपने स्वामी सम्राट राणा प्रताप के चरणों में अति विनम्र भाव से रख दी । इसी शहर से मीरा जैसी कृष्ण भक्त की यादें भी जुड़ी हैं।
यो यह छोटा-सा शहर है लेकिन इसके कण-कण में वीरता, त्याग और भक्तिभाव भरा दिखताहै । यहाँ के बाशिंदों की सहजता, सरलता आैर भाईचारा देखकर सहज ही यहाँ के महापुरुषों के गुणों की अभिव्यक्ति हो जाती है, जो इन्हें विरासत में मिले प्रतीत होते हैं ।
दर्शनीय स्थलों में एक विशाल दुर्गहै जिसके विषय में कहा जाता है कि गढ़ों में गढ़ चित्तौड़गढ़ बाकी सब गढ़ैया । इस गढ़ के अंदर मीरा मंदिर, विजय स्तंभ, गौमुखी कुंड, कालिका मंदिर, पद्मिनी महल, जौहरकुंड, कुंभा महल, जैन मंदिर आैर श्री महाराणा म्युजियम जैसे अनेक दर्शनीय स्थल हैं । जैन मंदिर में सभी २4 तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ स्थापित की गई हैं । सभी प्रतिमाएँ श्वेत संगमरमर के आकर्षक पत्थर से निर्मित हैं, पश्चिम की ओर बना रामपोल ही किले का मुख्य प्रवेश द्वार है । जैन मंदिर के सामने ही बड़े से गेट में विजय स्तंभ है, जो महाराणा कुंभा द्वारा मालवा के सुल्तान आैर गुजरात के सुल्तान के संयुक्त आक्रमण की साहसिक विजय के रूप में बनाया गया । यहाँ जौहर कुंड में रानी पद्मिनी जैसी वीरांगनाओं के जौहर की कहानी प्रतिबिंबित है ।
यहाँ के पार्क में भी महाराणा प्रताप की एक आकर्षक प्रतिमा ‘चेतक’ पर स्थापित है । राजस्थान के इन तीन शहरों की यात्रा ने एक गीत की कुछ पंक्तियाँ याद दिला दी-
‘यह देश है वीर जवानों का, अलबेलाें का,
मस्तानों का’ ‘इस देश का यारों क्या कहना, यह देश है धरती का गहना ।’
संक्षेप में यदि मैं कहूँकि यह वीरभूमि है, जहाँ त्याग भी है, बलिदान भी, शत्रु को परास्त करने का जज्बा भी है तो कला की परख भी, देशभक्ति भी है, ईश-भक्ति भी, यहाँ जौहर है तो अपने स्वत्व व सतीत्व की रक्षा का आदर्श भी तो रंचमात्र भी अत्युक्ति न होगी । भारतीय संस्कृति की धनी इस भूमि को हमारा शत-शत नमन ।